दो परदे की हांडी : प्यारी बाई के कहानी संग्रह से ली गयी दशामाता पर्व की कहानी
पुराने समय की बात है सूर्यनारायण भगवान की जो माताजी है वो एक दिन प्रजापत के पास जाती है और बोलती है कि हे प्रजापत हमे दो परदे वाली हांडी बना कर दे दे। प्रजापत उन्हें वैसी हांडी बना कर दे देता है। एक में तो वो मीठी खीर बनाते है और एक में खट्टी और खारी राब बनाते है। ऐसे करते करते काफी महीने हो जाते है। राणा दे तो बहुत कमजोर हो जाते है।
सूर्यनारायण ने उनसे पूछा राणा दे आजकल आप ज्यादा ही दुबले हो गए हो, क्या बात है। राणा दे बोलते है कि क्या करू मुझे खाना नहीं भाता है, खारा और खट्टा लगता है। सूर्यनारायण कहते है कि नहीं अपने तो प्रतिदिन मीठी खीर बनती है। राणा दे कहते है कि मुझे तो वह खट्टी और खारी लगती है।
दूसरे दिन सूर्यनारायण की माताजी थालियाँ परोसती है।
राणा दे चख कर थाली सरका देती है, सूर्यनारायण जब उन्हें ऐसा करते हुए देखते है तो वो अपनी माताजी से कहते है कि माँ थोड़ा जल भरना। उनकी माताजी जल लेने जाती है जितने में तो सूर्यनारायण थालियाँ बदल देते है।
सूर्यनारायण जब राणा दे की थाली से खाते है तो उन्हें भी खट्टी और खारी लगती है। जब उनकी माताजी जल लेकर आती है तो सूर्य भगवन बोलते है कि माँ ओ माँ आज तो भोजन खट्टा और खारा है। माताजी कहती है कि नहीं बेटा हमने तो तुम्हारे लिए मिट्ठी खीर रखी थी, कही तुम्हारे राणा दे की थाली तो नहीं आ गयी।
सूर्य भगवान बोलते है कि माँ ए माँ ऐसा अलग अलग भोजन क्यों बनाया। माताजी कहती है कि बेटा हमारे सास बहु में तो ऐसा चलता है। सूर्यनारायण बोलते है कि नहीं माँ ऐसा तो दुनिया में ही चलने दो। अपने महलो में ऐसा नी चलाना। सबके एक जैसा भोजन ही बनाना। तब से ही सास बहु में तेरा मेरा चलने लगा।