कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को रूप चौदस, काली चौदस, नरक चतुर्दशी, छोटी दिवाली आदि नामों से पुकारा जाता है।
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी हनुमान जी का जन्म दिवस भी है, इसलिए इस दिन हनुमान जन्मोत्सव भी मनाया जाता है।
विधि विधान :
कार्तिक के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को दिनोदय में नरक से बचने के लिए तैल मालिश कर स्नान करने का विधान है। सिर पर अपामार्ग की टहनियों को घुमाना चाहिए और इनके साथ जोती हुई भूमि की मिट्टी एवं काँटे भी होने चाहिए। इसके उपरान्त तिल-युक्त जल का तर्पण यम को किया जाना चाहिए और उनके सात नाम लेने चाहिए।
कुछ ग्रन्थों के अनुसार चतुर्दशी को लक्ष्मीजी तैल में और गंगाजी सभी जलों में निवास करने को दीपावली पर आती हैं और इसलिए जो व्यक्ति प्रातः तैल-स्नान करता है, वह यमलोक नहीं जाता है। वर्तमान काल में दक्षिण में लोग चतुर्दशी को स्नान के उपरान्त कारीट नामक कड़वा फल पैरों से कुचलते है, जो संभवतः नरकासुर के नाश का द्योतक है।
तैल-स्नान अरुणोदय के समय होना चाहिए, किन्तु किसी कारण ऐसा नहीं किया जा सके तो सूर्योदय के उपरान्त भी यह हो सकता है। धर्मसिन्धु के मत से यतियों (संन्यासी, तपस्वी, साधु) को भी तैल-स्नान करना चाहिए।
तिथितत्त्व एवं कृत्यतत्त्व के अनुसार इस चतुर्दशी को चौदह प्रकार के शाक-पातों का सेवन करना चाहिए।
आरम्भिक रूप में यह चतुर्दशी नरक चतुर्दशी कही जाती थी क्योंकि नरक से बचने के लिये यम को प्रसन्न रखना पड़ता है। आगे चलकर प्राग्ज्योतिष नगरी (कामरूप) के राजा नरकासुर के कृष्ण द्वारा वध की कथा इसमें संयुक्त हो गयी। इसी कथा से नरक चतुर्दशी का मिलन हो गया। आजकल केवल नरकासुर का नाम मात्रा लिया जाता है, यमतर्पण नहीं किया जाता है।
भविष्य पुराण के अनुसार नरक के लिए (जिससे नरक में न पड़ना पड़े) एक दीप जलाना चाहिए। और उसी संध्या में ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि के मन्दिरों में, मठों, अस्त्रागारों, चैत्यों (वे उच्च स्थल जहाँ पुनीत वृक्ष पौधे लगे रहते है), सभाभवनों, नदियों, भवन-प्राकारों, उद्यानों, कूपों, राजपथों एवं अन्तःपुरों में, सिद्धों, अर्हतों (जैन साधुओं), बुद्ध, चामुण्डा, भैरव के मन्दिरों, अश्वों एवं हाथियों की शालाओं में दीप जलाने चाहिए। कुछ ग्रन्थों के अनुसार नरकासुर की स्मृति में चार दीप जलाने चाहिए।
विष्णु पुराण एवं भागवत पुराण में नरकासुर के उपद्रवों का वर्णन है। उसने देवताओं की माता अदिति के आभूषण छीन लिये, वरुण को छत्र से वंचित कर दिया, मन्दर पर्वत के मणिपर्वत शिखर को छीन लिया, देवताओं, सिद्धों एवं राजाओं की 16100 कन्याए हर लीं और उन्हें प्रासाद में बन्दी बना लिया। कृष्ण भगवान ने उसे मार डाला। उन्होंने कृपा कर उन कन्याओं से विवाह करके उन कन्याओं की स्थिति उन्नत कर दी।
कुछ ग्रन्थों ने कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी पर निम्न कृत्यों की व्यवस्था की है : अम्यंग स्नान (तैल स्नान ), यम तर्पण, नरक के लिए दीपदान, रात्रि में दीपदान, उल्कादान (हाथ में मशाल लेना ), शिव-पूजा, महारात्रि-पूजा तथा केवल रात्रि में भोजन (नक्त) करना।
अब केवल तीन (तैल स्नान, नरक-दीपदान एवं रात्रि-दीपदान) ही प्रचलित हैं।
स्नान के उपरान्त लोग नये वस्त्र एवं आभूषण धारण करते हैं, मिठाइयाँ और रात्रि में भाँति – भाँति के व्यंजन भोजन करते हैं। निर्णयसिन्धु, कृत्यतत्व आदि कुछ ग्रंथों में नरकचतुर्दशी को भूतचतुर्दशी की संज्ञा दी हुई है।
कृष्ण पक्ष चतुर्दशी, अमावास्या एवं कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को प्रातःकाल तैल-स्नान (तेल लगाकर स्नान करना) व्यवस्थित किया गया है, क्योंकि इससे धन एवं ऐश्वय मिलता है।
पित्तरों के लिये उल्कादान (हाथ में मशाल लेना )
धर्मसिन्धु आदि ग्रन्थों के अनुसार कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी और अमावास्या की सन्ध्याओं को मनुष्यों को अपने हाथों में उल्काएं (मशाल) लेकर अपने पितरों को दिखाना चाहिए और इस मन्त्र का पाठ करना चाहिए:
"मेरे कुटुम्ब के वे पितर जिनका दाह-संस्कार हो चुका है, जिनका दाह-संस्कार नहीं हुआ है और जिनका दाह-संस्कार केवल प्रज्वलित अन्नि से (बिना धार्मिक कृत्य के ) हुआ है, परमगति को प्राप्त हों। ऐसे पितर लोग, जो यमलोक से यहाँ महालया श्राद्ध पर आये हैं (आश्विन के कृष्ण पक्ष में) उन्हें इन उल्काओं से मार्गदर्शन प्राप्त हो और वे (अपने लोकों को) पहुँच जायेँ।