नव संवत्सर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को आरंभ होता है। ऋतुओं के परिवर्त को संवत्सर कहते है।

ब्रह्मपुराण में आया है कि ब्रह्माजी ने चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि (अर्थात चैत्र शुक्ल प्रतिपदा) के सूर्योदय होने के पश्चात् सृष्टि की रचना प्रारम्भ करी थी। चूँकि सृष्टि का आरम्भ इसी दिन से हुआ था अतः इसी तिथि को नव संवत्सर आरम्भ माना जाता है।
अतः इसी तिथि को नव संवत्सर आरम्भ माना जाना उचित भी है।
चैत्र मास से नव वर्ष को आरम्भ करने का वैज्ञानिक मत भी है। चैत्र मास बसन्त ऋतु का प्रथम मास है। बसन्त ऋतु के आगमन से वर्ष आरम्भ करना वैज्ञानिक ही है। बसंत ऋतु में वृक्षों के पुराने सूखे पत्ते झर जाते है और उन पर नए पत्ते आ जाते है मानों समस्त पौधों – वृक्षों – लताओं ने नवीनता धारण कर ली हो। अतः प्रकृति को नवीनता प्रदान करने वाली ऋतु से वर्ष का प्रारम्भ करना सर्वथा उचित है।
चैत्र मास के प्रथम दिन वर्ष को आरम्भ ना करके शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को ही नव वर्ष क्यों प्रारम्भ किया गया ?
प्रत्येक मास में पहले कृष्ण पक्ष आता है और फिर शुक्ल पक्ष आता है। एकम (प्रतिपदा) से पूर्णिमा वाला पक्ष शुक्ल पक्ष कहलाता है और एकम (प्रतिपदा) से अमावस्या वाला पक्ष कृष्ण पक्ष कहलाता है। चन्द्रमा को सभी धार्मिक कार्यों में सूर्य जितना ही महत्त्व दिया जाता है। चन्द्रमा ही समस्त पौधों को रौशनी प्रदान करता है। शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा की कलाये बढ़ती जाती है अर्थात उसका आकर बढ़ता जाता है और शुक्ल पक्ष के अंतिम दिन अर्थात पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा 16 कलाओ से युक्त होता है अर्थात पूरा होता है। जबकि कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा घटता जाता है। शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से ही चन्द्रमाका आकर बढ़ने लगता है अतः चन्द्रमा की स्थिति के अनुसार भी शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नव वर्ष आरम्भ करना उचित है।
प्राचीन काल से ही नव संवत्सर के दिन घरों पर ध्वजा लगाने, पञ्चाङ्ग श्रवण, तैलाभ्यङ्ग एवं मिश्री – काली मिर्च – मिश्री – नीम के कोमल पत्ते खाने का विधान है। पञ्चाङ्गो में जो श्लोक लिखे है उनमें नीम पत्ते मिश्री के स्थान पर नमक, हींग, जीरा तथा अजवाइन लिखे है।
नव संवत्सर पर तैलाभ्यङ्ग एवं मिश्री – काली मिर्च – मिश्री – नीम के कोमल पत्ते खाने का जो विधान है वो सर्वथा वैज्ञानिक है।
ज्वरादि रोगों से मुक्त होने के लिए नीम का उपचार तो सर्वथा प्रसिद्ध ही है। यह भी सर्वविदित है कि नीम अत्यंत कड़वा होता है। अत्यंत कड़वे रस वाली वस्तु वायु उत्पन्न करती है। नीम के कोमल पत्तों के साथ मिश्री इसलिए खायी जाती है कि ताकि कड़वा नीम वायु न उत्पन्न करे। मिश्री मधुर रस की वजह से वायु को शांत करती है। साथ ही मधुर रस वाली वस्तु कफ उत्पन्न करती है। कफ को शांत करने के लिए चिरपरी वस्तु काली मिर्च मिला दी जाती है। इस प्रकार से यह मिश्रित वस्तुओं का प्रयोग त्रिदोष को दूर करके सर्वरोगनिवारक सिद्ध होता है। इस प्रकार की मिश्रित वस्तु का संवत्सरारम्भ में सेवन करना सब प्रकार से हितकारी है।
यह बात भी ख़ास ध्यान रखने योग्य है कि अधिकांश रोगों की उत्पत्ति चर्म-संबंधी मलिनता एवं उदर की अशुद्धि से होती है। चर्म संबंधी विकारों को दूर करने के लिए तिल के तैल का अभ्यङ्ग विशेष लाभकारी होता है। आयुर्वेदाचार्यो ने इसकी खूब प्रशंसा करी है। शरीर अभ्यङ्ग से दृढ़, अच्छी त्वचा वाला, वात पीड़ा से निवृत और कष्ट तथा व्यायाम को अच्छी तरह सहन करने वाला हो जाता है। तैलाभ्यङ्ग के अनेक फायदे है। इसी कारण से संवत्सरारम्भ के दिन तैलाभ्यङ्ग को अनिवार्य कर दिया गया था। ताकि नव संवत्सर के प्रथम दिन से ही इसका अभ्यास हो सके।