
तिथियों के नियम के सन्दर्भ में श्रुति में आया है कि दोपहर के पूर्व का समय देवो का होता है, मध्यान्ह ( दोपहर) वाला मनुष्यों का होता है तथा अपरान्ह वाला समय पितरों का होता है।
मनु में वर्णित है कि ” प्रातःकाल व्यक्ति को निम्न कर्त्तव्य करने चाहिए : शरीर की शुद्धि, दन्त धावन, स्नान, आँखों में अंजन लगाना एवं देव पूजा। ये सभी कार्य पूर्वान्ह में ही होने चाहिए। ” अतः देवताओं के लिए दिन में किये जाने वाले सभी धार्मिक कृत्य निर्दिष्ट तिथियों में प्रातःकाल ही करने चाहिए।
तिथियों के नियम के अनुसार वो सारे व्रत, जो संध्याकाल या रात्रि में सम्पादित किये जाने वाले होते है, उन्हें उसी तिथि में करने चाहिए, भले ही वह किसी दूसरी तिथि से मिश्रित (विद्धा ) हो। यहाँ पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि मास के दोनों पक्षों में सभी तिथियाँ पूर्व या उपरान्त वाली तिथि को तीन मुहूर्तों (अर्थात ६ घटिकाओं) से प्रभावित करती है। कुछ तिथियाँ कई घटिकाओं से वेध उत्पन्न करती है, यथा पंचमी 12 घटिकाओं से षष्ठी का, दशमी 14 घटिकाओं से एकादशी का वेध करती है। कभी कभी विद्धा तिथियाँ धार्मिक कर्मो के योग्य ठहरती है, और कभी कभी सर्वथा प्रतिकूल ठहरती है।
पहला सिद्धांत है कि काल (किसी कृत्य क लिए निर्धारित समय) केवल विस्तार (विस्तृत विवरण) नहीं है, बल्कि यह एक निमित्त (अवसर) है, जिसके होने से कृत्य होता है। और जो कृत्य उसके भीतर सम्पादित नहीं होता है, वह असम्पादित रह जाता है। हेमाद्रि ने उचित काल में किये जाने वाले कृत्यों की महत्ता पर बल दिया है और कहा है कि शिष्टों की निंदा से बचने के किये ही गौण काल का आश्रय लिया या जब कोई अन्य विकल्प नहीं होता।
तिथियों के नियम कहते है कि कोई तिथि यदि दो दिनों की हो और निश्चित समय वाली हो, तो सामान्य नियम यह है कि युग्मवाक्य द्वारा निर्णय किया जाना चाहिए।
जैसे कि मान लिया जाए कि कोई व्रत किसी तिथि के दोपहर में होने वाला हो, तो वह तिथि दोपहर के समय में दो दिनों में पायी जा सकती है या मान लिया जाये की कोई तिथि दोपहर के एक या दो घटिका उपरांत आरम्भ होती है और दूसरे दिन दोपहर के पूर्व एक या दो घटिका पहले ही समाप्त हो जाती है, तो ऐसी स्थिति में कौन सी तिथि (पूर्व-विद्धा या पर-विद्धा ) कृत्य के लिए उचित है, इसका निर्णय सामान्य सिद्धांत के अनुसार युग्मवाक्य द्वारा किया जायेगा।
युग्मवाक्य का अनुवाद निम्न रूप से किया जा सकता है :
” निम्न तिथियों के जोड़े बड़े फल देने वाले होते है:
- द्वितीया एवं तृतीया
- चतुर्थी एवं पंचमी
- षष्ठी एवं सप्तमी
- अष्टमी एवं नवमी
- एकादशी एवं द्वादशी
- चतुर्दशी एवं पूर्णिमा
- अमावस्या एवं प्रतिपदा
इसके विपरीत, अन्य तिथियों के जोड़े से भयंकर हानि होती है, इनसे संचित पुण्य समाप्त हो जाये है।”
स्तोत्र :
धर्मशास्त्र का इतिहास : पी. वी. काणे