तिथि क्या होती है

चंद्रमा के एक दिन को तिथि कहते है। जैसे प्रतिपदा (एकम), द्वितीया, चतुर्थी, एकादशी, अमवस्या, पूर्णिमा आदि ।

सूर्य से 12 अंश की दूरी तक जाने में जो समय चंद्र को लगता है वो अवधि तिथि कहलाती है।
सूर्य सिद्धान्त के अनुसार ” तिथि चान्द्र दिन है, जब अमावस्या के अंतिम क्षण पर चन्द्र सूर्य को छोड़ कर प्रतिदिन पूर्व दिशा में 12 अंश (भाग ) की दुरी पार करता है। “

चन्द्र की गति अनियमित होने के कारण, चन्द्र 12 भाग कभी कभी तो 60 घटिकाओ में पार करता है , तथा कभी कभी अधिक घटिकाओ (65 घटिकाओ तक) में और कभी कभी कम घटिकाओ (54 घटिकाओ तक ) में पार करता है। इसी के परिणामस्वरुप कभी तो एक दिन में एक ही तिथि होती है और कभी कभी दो तिथियाँ हो जाती है।

अधिकतर एक दिन में 2 तिथियाँ होती है, जैसे कि प्रातःकाल अष्टमी है तो अपरान्ह, संध्याकाल और रात्रि में नवमी।

ऐसा भी संभव हो सकता है कि एक दिन में 3 तिथियाँ हों जाये उदाहरणार्थ शनिवार को अष्टमी की केवल 2 घटिकाएँ शेष हों, तदुपरान्त नवमी केवल 56 घटिकाओ की अवधि वाली हों और आगे दशमी उसी दिन 2 घटिकाएँ अपने में समेट लें।

इसका उल्टा भी हो सकता है – केवल एक ही तिथि तीन दिनों तक चलती रह सकती हैं। जैसे कि सोमवार की अंतिम दो घटिकाएँ अष्टमी की प्रथम दो घटिकाएँ हों, तदुपरान्त मंगल की 60 घटिकाएँ अष्टमी में ही समाहित हो और अंतिम दो घटियाएँ बुध के प्रातःकाल तक चलती रहे। राजमार्तण्ड के अनुसार वह दिन बहुत पवित्र अर्थात शुभ माना जाता है जिस दिन तीन तिथियाँ चलती रहे।

परन्तु जब एक ही तिथि के तीन दिनों तक चलते रहने पर उसे वैवाहिक कार्यो के लिए अशुभ माना जाता है । इसे आक्रमण करने, शुभ धार्मिक कृत्य करने या पुष्टिकर्म के लिए भी अशुभ ठहराया गया हैं।

कोई तिथि यदि सूर्योदय के पूर्व से आरंभ हो जाती है अथवा इसका आरंभ सूर्योदय से मिल जाता है और आगे आनेवाले सूर्योदय तक वह चलती रहती है तो ऐसी तिथि (यथा प्रतिपदा, द्वितीया आदि या जो कोई भी हो ) दोनों दिनों की होती हैं और इस प्रकार से एक ही नाम की दो तिथियाँ एक के उपरांत एक प्रकट होती हैं। इसे उस तिथि की वृद्धि कहा जाता है।

कोई तिथि यदि सूर्योदय के कुछ देर उपरांत आरम्भ हो जाती है और दूसरे दिन सूर्योदय के पूर्व ही समाप्त हो जाती है तो इसका पुरे दिन के साथ संयोग नहीं हो सकता, तब उसे पंचांग में नहीं रखा जाता हैं तथा इसे तिथि-क्षय माना जाता हैं। इसमें तिथि दिन से छोटी हो जाती हैं अतः वृद्धि की अपेक्षा क्षय का योग अधिक लग जाया करता हैं।


स्तोत्र :
धर्मशास्त्र का इतिहास : पी. वी. काणे

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