व्रत : वैदिक ग्रंथो के आधार पर व्रत परिचय

व्रत से आत्मा शुद्ध होती है। संकल्पशक्ति शक्ति बढ़ती है।

वैदिक संहिताओं (ऋग्वेदीय संहिताओं के अतिरिक्त) और उपनिषदों में व्रतों के दो अर्थ लिखे हुए है :
1) संकल्प या धार्मिक कृत्य या आचरण तथा व्रत धारण करते समय भोजन-सम्बंधित रोक
कोई संकल्प लेता है कि उसे हमेशा सत्य ही बोलना है तो वो भी व्रत कहलाता है। या उसे घर आये मेहमानों को बिना पानी पीये जाने नहीं देना है तो वह भी इस श्रेणी में आते है। हम अगर संकल्प ले कि प्रतिदिन दो पन्ने किसी पुस्तक के पढ़ेंगे तो वह भी व्रत ही कहलायेगा। तैत्तिरीयोपनिषद के अनुसार भोजन की निंदा नहीं करनी चाहिए, यही व्रत है। भोजन अधिक बनाना चाहिए यह भी व्रत ही है।
इस प्रकार से संकल्प लेकर हम व्रतों को धारण कर सकते है। इस प्रकार के व्रतों से हम अनुशासन में रहना सीखते है।

2) विशिष्ट प्रकार का भोजन जैसे गाय का दूध, पंचामृत आदि।
विशिष्ट प्रकार का भोजन धार्मिक कृत्य या संकल्प में संलग्न व्यक्ति के लिए व्यवस्थित किया जाता है।

व्रत

ब्राह्मण ग्रंथों के काल में “व्रत” शब्द के दो गौण रूप आ चुके थे:
1) व्यक्ति के आचरण के लिए उचित व्यवस्था तथा
2) उपवास

मध्यकाल में भी व्रतों के बारें में विस्तार से वर्णन मिलता है। शबर ने व्रतों को मानस क्रिया कहा है जो कि प्रतिज्ञा के रूप में होती है जैसे कि मैं यह करुँगी या यह नहीं करुँगी। अग्निपुराण में यह कहा गया है कि शास्त्र द्वारा घोषित नियम ही व्रत कहलाता है। तप भी शास्त्र द्वारा घोषित नियम है। व्रत को एक प्रकार का तप ही कहा गया है। क्योंकि व्रत में भी करने वाले को कष्ट हो सकता है। मनु की घोषणा के अनुसार संकल्प ही सभी व्रतों, यज्ञों और इच्छाओ का मूल है। संकल्प से ही व्रत सम्पूर्ण होता है। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि व्रतों के लिए संकल्प लिया जाता है परन्तु हर संकल्प व्रत नहीं कहलाता।

अमरकोश में आया है कि व्रत का अर्थ नियम है अर्थात ये दोनों समानार्थी है। मिताक्षरा ने व्रतों को मानसिक संकल्प कहा है। मानसिक संकल्प के द्वारा कोई विशेष कर्म करने को या नहीं करने का कहा जाता है। इन दोनों को ही कर्त्तव्य के रूप में लिया गया है। शबर और मिताक्षरा के व्रतों की व्याख्या को ध्यान में रख कर श्रीदत्त ने व्रतों को निर्दिष्ट संकल्प कहा है जो कि किसी विषय से सम्बंधित होता है तथा जिससे कर्त्तव्य के साथ हम अपने को बांधते है।

श्रीदत्त के अनुसार व्रत भावनात्मक या अभावनात्मक भी हो सकता है।
भावनात्मक – मैं यह कार्य अवश्य करूँगी ;
अभावनात्मक – मैं ऐसा नहीं करुँगी;
श्रीदत्त ने आगे यह भी कहा है कि ऐसा संकल्प जो शास्त्रों द्वारा निर्धारित नहीं हो और जिसके साथ कोई प्रतिबन्ध लगा हो और वह व्रत नहीं कहलाता। अगर कोई ऐसा कहता है कि मैं अगर सुबह जल्दी उठ जाऊंगा यह व्रत करूँगा अन्यथा नहीं करूँगा तो यह व्रत कदापि नहीं कहलायेगा। साथ मैं अगर कोई बिना संकल्प के व्रत करता है तो वह व्रत नहीं कहलायेगा, वह मात्र शरीर को कष्ट देने का कृत्य कहलाया जायेगा।


व्रतों को करते समय हमें इस बात का जरूर ध्यान रखना चाहिये कि हम संकल्प जरूर ले।

स्त्रोत :

  1. धर्मशास्त्र इतिहास : पी. वी. काणे
  2. धर्मसिन्धु

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