होली पर्व – भारतवर्ष का आनंद और उत्साह का अति प्राचीन उत्सव

होली अर्थात होलिका भारतवर्ष का आनंद और उत्साह का अति प्राचीन उत्सव है जिसे अनादि काल से मनाया जा रहा है। भिन्न-भिन्न काल खण्डो में इसके साथ विविध प्रसंग जुड़ते चले गये। इसके कारण कई बार इसके प्रारम्भ को उस काल खंड में हुआ भी कह दिया जाता है। यथा भक्त प्रह्लाद व होलिका प्रसंग अथवा राजा रघु काल से जोड़ दिया जाना। अन्यथा यह वैदिक काल से चला आ रहा पर्व है।

लिंगपुराण में आया है कि ‘फाल्गुन पूर्णिमा” को “फाल्गुनिका” कहा जाता है, यह बाल- क्रीड़ाओं से पूर्ण है और लोगो को विभूति (ऐश्वर्य) देने वाली है।’

इस पर्व का आरंभिक शब्द रूप “होलाका”, “नवान्न यज्ञ” व “नव शस्येष्ठि यज्ञ” था।

रबी की फसल पकने पर गेहूँ, चना आदि नव शस्य (नयी फसल) प्राप्ति के उपलक्ष्य में किये जाने वाले अनुष्ठान में गेहूँ, जौ, चना आदि की बलियो को अग्नि में होमने व भुनने का चलन रहा है। अग्नि में भुनने या सेंकने अर्थात रोस्ट कर लेने पर यह जो सिका हुआ अन्न बचता है उसे संस्कृत में “होला” या “होलाका” कहा जाता है। आज भी हिंदी की विविध बोलियों में इस भुने हुए अन्न को “होला” या “होलाका” ही कहा जाता है। कालांतर में होलिका व प्रह्लाद का प्रसंग इसमें जुड़ गया। और इसी प्रकार से इसके साथ भिन्न भिन्न प्रथाएं जुड़ती चली गयी।

उत्सव मानाने के ढंग में कहीं कहीं अंतर पाया जाता है। बंगाल को छोड़ कर होलिका दहन सर्वत्र देखा जाता है। बंगाल में फाल्गुन पूर्णिमा पर कृष्ण प्रतिमा का झूला प्रचलित है किन्तु यह भारत के अधिकांश स्थानों में नहीं दिखायी पड़ता।

होली का त्योहार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है, संध्या में होली जलाई जाती है। लोग होलिका दहन के समय परिक्रमा करते है, अग्नि में नारियल पधराते है। साथ ही गेहूँ,जौ,चना आदि की बालियो, लीलवे को अग्नि में होमते है व सेकते है । होलिका दहन के अगले दिन पिचकरी से रंगीन जल छोड़ते है या अबीर गुलाल लगाते है। पहले तो बाँस या धातु की पिचकारी काम में ली जाती है परन्तु अब ज्यादातर प्लास्टिक की पिचकारी ही चलन में आ गयी है।

पुराने समय में रंगीन जल छोड़ने के साथ ही सुंगंधित चूर्ण भी बिखेरते थे।

मेवाड़ में होलिका दहन के दौरान एक और विशेष प्रथा भी है जिसमें मामा भाणेज सात बार दशामाता की कुकड़िया (कच्चे सूत के गुच्छे) होली की ज्वाला में से इधर से उधर झेलते है। होली के ज्वाला से कुकड़िया झेलने के बाद ही इनकी पूजा होती है। ये कुकड़िया दशामाता का प्रतीक होती है। अगले दस दिनों तक इनकी ही पूजा होती है। इन्हे घर के अंदर ही पवित्र स्थान पर विराजित किया जाता है ।

इसी प्रकार होली से ही त्योहारों की शुरुवात हो जाती है।

बसंत की आनन्दाभिव्यक्ति रंगीन जल एवं लाल रंग, अबीर गुलाल के पारस्परिक आदान-प्रदान से प्रकट होती है। कुछ प्रदेशों यह रंग युक्त वातावरण होलिका के दूसरे दिन ही होता है, किन्तु दक्षिण में यह होलिका के पाँचवे दिन (रंग पंचमी) मनायी जाती है। कहीं कहीं रंगो के खेल पहले से ही आरम्भ कर दिए जाते है और बहुत दिनों तक चलते रहते है। और होलिका के पूर्व ही लोगो पर रंग फेंक कर बसंतोत्सव मनाया जाता है।

स्त्रोत :

  1. धर्मशास्त्र इतिहास
  2. धर्मसिन्धु


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