श्राद्ध का शास्त्रीय स्वरूप

श्राद्ध के बारें में शास्त्रों में भी बहुत वर्णन है। उन्ही में से कुछ बातें इस पोस्ट के माध्यम से जानते है।

श्राद्ध या पितृ पक्ष, भाद्रपद महीने की पूर्णिमा से शुरू होकर आश्विन महीने की अमावस्या तक होता है।

मृत पितरों के उद्देश्य से जो अपने प्रिय भोग्य पदार्थ (ब्राह्मण को) श्रद्धापूर्वक प्रदान किये जाते हैं उस अनुष्ठान का नाम “श्राद्ध” है

– श्राद्धकल्पे शाठयायनिः

कच्चे मांस को दाह संस्कार में फूंक डालने वाले जो अग्निदेव हमारे घर में प्रविष्ट हुए है, उन अग्निदेव को मैं पितृयज्ञ (श्राद्ध) के निमित्त शुद्ध करके स्थापित करता हूँ

– ऋग्वेद

पितृयज्ञ का ही अपर (दूसरा) नाम “श्राद्ध” है

– कात्यायन स्मृति

जो मर गए है वो पितृलोक को चले जाएं

– अथर्ववेद

मृत्यु के पश्चात् पितृयोनि में प्रविष्ट हो जाओ

– अथर्ववेद

अंतरिक्ष से उपरितम (सबसे उपर) भाग को “प्रद्यौः” संज्ञा है जिसमें पितर रहते हैं

– अथर्ववेद

पितृलोक मनुष्यलोक से चर्मचक्षुओं द्वारा दृष्ट नहीं हैं

– तैत्तिरीय

चंद्रमा की उर्ध्व कक्षा में वर्तमान पितृलोक में पितर रहते हैं

– सिद्धांत शिरोमणि

जिन [अजातदंत और कुष्ठ रोगी आदि] मृत व्यक्तियों के शरीर भूमि में गाड़ दिए गए हैं, जिन [वैखानस (वानप्रस्थ आश्रम में प्रवृत्त व्यक्ति) आदि चतुर्थाश्रमियों ] के जलादि में प्रवाहित कर दिए गए हैं, जिनके जला दिए गए हैं और जिन [परमहंस आदि] के वन में वृक्षों पर टांग दिए गए हैं, हे अग्निदेव ! उपर्युक्त चारों प्रकार के और्ध्वदैहिक-संस्कार-संपन्न उन पितरों को हमारी प्रदान की हुई हवि खाने के लिए इस श्राद्ध कर्म में पहुंचाओ

– अथर्ववेद

हे जातवेदा अग्निदेव ! [जिस प्राणी ने कर्मानुसार जहां-जहां भी जन्म धरण किया है उन सब के ज्ञाता तेजस्वी परमात्मन् हम आपकी स्तुति करते हैं, आप हमारे द्वारा प्रदान की हुई इन हवियों को सुगंधित करके तृप्ति के निमित्त पितरों को प्रदान करो

– अथर्ववेद

मैं इस ओदनोपलक्षित (चावलके भात) भोजन को ब्राह्मणों में स्थापित करता हूँ [उन्हें खिलाता हूँ] जो सूक्ष्म रूप से अतीव विस्तृत होकर लोक-लोकान्तर  को जीतता हुआ स्वर्ग तक पहुंचता हैं

– अथर्ववेद

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