भारतीय ऋतु परिचय तथा उनका नामकरण

ऋतु उसे कहते है जो सदैव चलती रहती है।

ऋतु शब्द “ऋ गतौ” धातु से बना है। इसकी व्युत्पत्ति है : “इयर्तीति ऋतु: “
अर्थात जो सदैव चलती रहे।

ऋतु समय(काल) की एक इकाई है। देखा जाये तो ऋतु ही समय की चाल (गति) है। सभी प्राणियों, पेड़ पौधों का विकास ऋतु के अनुसार ही होता है। वेदों में चन्द्रमा को ऋतुओं का निर्माणकर्ता कहा गया है।

भारतीय काल गणना की इकाईयाँ निम्नलिखित है:

इन्ही इकाईयों से भारतीय पर्व, व्रत, उत्सवादि आदि का ज्ञान होता है।

एक मास में दो पक्ष होते है – शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। एकम से पूर्णिमा वाला पक्ष शुक्ल पक्ष कहलाता है और एकम से अमावस्या वाला पक्ष कृष्ण पक्ष कहलाता है।

और छ: ऋतुओं के हिसाब से एक ऋतु में दो मास आते है। प्रारम्भ से ही ऋतुएँ तीन ही चली आ रही है – ग्रीष्म (गर्मी), वर्षा (बरसात) और हेमंत (सर्दी/जाड़ा)। बाद में इन्हीं ३ ऋतुओं के दो-दो भाग करके छः ऋतुएँ मानी जाने लगी – बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त और शिशिर।

बसन्त ऋतु

बसन्त ऋतु में चैत्र (मधु) और वैशाख (माधव) मास आते है। चैत्र और वैशाख मासों के प्रचलित नाम है। मधु और माधव मासों के वैदिक नाम है जिनका सम्बन्ध ऋतु से है। मधु और माधव दोनों ही शब्द मधु से बनें है। मधु अर्थात एक प्रकार का रस जो वृक्षों, लताओं और जीवों को उत्साहित करता है। जिस ऋतु में इस प्रकार के रस की जिस ऋतु में प्राप्ति होती है, उस ऋतु को बसन्त ऋतु कहते है।

प्रायः यह देखा गया है कि इस ऋतु में बरसात के बिना ही वृक्षों, लताओं आदि पर पुष्प खिल जाते है और सभी जीव जन्तुओ में भी उत्साह, सुख और स्नेह का भाव देखा जाता है। यह तो सर्वविदित ही है कि बसन्त ऋतु में वृक्षों, लताओं के पत्ते कोमल होते है। पत्तो की कोमलता इस रस (जल) की वजह से ही होती है। ग्रीष्म ऋतु आने पर इस जल के सूख जाने के कारण ही पत्ते भी सूख जाते है।

अतः उस ऋतु को बसन्त ऋतु कहते है, जिस ऋतु में प्राणियों को ही नहीं परन्तु वृक्षों, लताओं को भी आह्लादित करने वाला मधु रस प्रकृति से प्राप्त होता है।

ग्रीष्म ऋतु

ग्रीष्म ऋतु में ज्येष्ठ (शुक्र) और आषाढ़ (शुचि) मास आते है। ज्येष्ठ और आषाढ़ मासों के प्रचलित नाम है। शुक्र और शुचि मासों के वैदिक नाम है जिनका सम्बन्ध ऋतु से है ।

शुक्र और शुचि दोनों ही शब्द “शुच्” शब्द से बने हुए है। “शुच्” शब्द का अर्थ होता है सुखना या जलना। यही ग्रीष्म ऋतु में होता है। यह बसन्त ऋतु के पश्चात आती है। ग्रीष्म ऋतु के पश्चात् वर्षा ऋतु आती है।

बसन्त में जिस प्राकृतिक मधु रस की प्राप्ति होती है वह रस ग्रीष्म (गर्मी) में जल जाता है अथवा सूख जाता है। गर्मी के मौसम में अग्नि तत्व की उग्रता रहती है जिसके परिणामस्वरूप ही एसा होता है। अर्थात यही वह मौसम है जो पृथ्वी के रस (जल) को जला या सुखा देती है ।

वह जो पदार्थो को सुखा य जला देती है, ग्रीष्म ऋतु कहलाती है।

शुक्र मास : वह मास जिसमें सूर्य की उष्णता (गर्मी) बढ़ती है, उसे शुक्र मास कहते है। इसे ज्येष्ठ (जेठ) मास भी कहते है ।

शुचि मास : शुचि वह मास है जिसमें सूर्य की उष्णता (गर्मी/ताप) से उत्पन्न परिणाम दिखने लगता है । अर्थात सूर्य की गर्मी से ही वृक्षों पर आम आदि फल पकने लगते है और खेतों की फसल भी पक जाती है। तथा उष्णता अत्यधिक मात्रा में बढ़ कर वर्षा के आरम्भ की सूचना देने लगती है। यह आषाढ़ मास भी कहलाता है।

शुक्र और शुचि के ज्येष्ठ और आषाढ़ नाम चन्द्रमा की स्थिति के अनुसार है।

जिस मास की पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा ” ज्येष्ठा ” नक्षत्र पर होता है वह ज्येष्ठ मास कहलाता है। तथा जिस मास की पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा ” उत्तराषाढ़ (उत्तरा आषाढ़) ” नक्षत्र पर होता है वह आषाढ़ मास कहलाता है।

वर्षा ऋतु

वर्षा ऋतु में श्रावण (नभ) और भाद्रपद (नभस्य) मास आते है। श्रावण और भाद्रपद मासों के प्रचलित नाम है। नभ और नभस्य मासों के वैदिक नाम है जिनका सम्बन्ध ऋतु से है। वर्षा ऋतु का अर्थ और नभ और नभस्य मासों के नाम और अर्थ में समानता है।

नभ और नभस्य दोनों ही शब्द ” नभस् ” शब्द से बने हुए है।

वह पदार्थ जिसके द्वारा रस अर्थात जल पहुँचाया जाता है या जो प्रकाश को ढक देता है, उस तत्व को नभस् कहते है।

श्रीमद्भागवत में भी आया है कि :
अष्टौ मासान् नीपितं यद् भुम्यश्वोदमयं वसु।
स्वगोभिर्मोक्तुमारेभे पर्जन्य: काल आगते।।

अर्थात आठ महीनों तक जो जल सूर्य की किरणों से भाप बनकर आकाश में अप्रकट रूप से स्थित था; उसको प्रकट रूप में लाकर जल का स्वरुप देने वाले तत्त्व को अथवा (या) सूर्य को ढकने वाले तत्व को नभस कहते है। और वह तत्त्व जिस ऋतु में प्रधानता से कार्य करता है, वह वर्षा ऋतु कहलाती है।

नभस् के अन्य नाम :
पर्जन्य, बरसते हुए बादल

नभस् (श्रावण) मास : नभस उस मास को कहते है जिसमे जल के प्रतिबंधक तत्वों (जल को रोकने वाले तत्त्व) का विनाश होता है। नभस् मास को श्रावण मास भी कहते है। इसका श्रावण नाम चन्द्रमा की स्थिति के अनुसार है। जिस मास की पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा ” श्रवण ” नक्षत्र पर होता है वह श्रावण मास कहलाता है।

नभस्य (भाद्रपद) मास : नभस्य उस मास को कहते है जिसमे जल के प्रतिबंधक तत्वों (जल को रोकने वाले तत्त्व) के विनाश का परिणाम प्रतीत होता है। नभस्य मास को भाद्रपद मास भी कहते है। इसका भाद्रपद नाम चन्द्रमा की स्थिति के अनुसार है। जिस मास की पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा ” उत्तरा भाद्रपद ” नक्षत्र पर होता है उसे भाद्रपद मास कहलाता है।

शरद् ऋतु

शरद् ऋतु में आश्विन (इष) और कार्तिक (ऊर्ज) मास आते है। आश्विन और कार्तिक मासों के प्रचलित नाम है। इष और उर्ज मासों के वैदिक नाम है जिनका सम्बन्ध ऋतु से है । इष और उर्ज मासों के नाम व अर्थ शरद् ऋतु के अर्थ से समानता रखते है।

यह ग्रीष्म ऋतु के पश्चात आती है। इस ऋतु के पश्चात् हेमन्त ऋतु आती है।

इष् और ऊर्ज् शब्दों से इष और ऊर्ज शब्द बने है।

इषम् अन्नम् उर्जम् पयोघ्रितादिरूपं रसं च

व्याख्याकारों ने इष का अर्थ अन्न माना है और ऊर्ज का अर्थ दुग्ध, घृत आदि रस माना है। अतः जिस ऋतु में अन्न, घृत, दुग्ध का परिपाक और प्राप्ति होती है ,वह शरद् ऋतु कहलाती है।

शरद् शब्द की निरुक्त में जो व्युत्पत्ति की गई है उसके अनुसार वह ऋतु जिसमें औषधियाँ (फसलें) या जल (मैल को छोड़ कर) शीर्ण हो जाता है, शरद् ऋतु कहलाती है।

इष और उर्ज के आश्विन और कार्तिक नाम चन्द्रमा की स्थिति के अनुसार है।

जिस मास की पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा ” अश्विनी ” नक्षत्र पर होता है वह आश्विन मास कहलाता है। तथा जिस मास की पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा ” कृतिका ” नक्षत्र पर होता है वह कार्तिक मास कहलाता है।

हेमन्त ऋतु

हेमन्त ऋतु में मार्गशीर्ष (सहस्) और पौष (सहस्य) मास आते है। मार्गशीर्ष और पौष मासों के प्रचलित नाम है। सहस् और सहस्य मासों के वैदिक नाम है जिनका सम्बन्ध ऋतु से है । इष और उर्ज मासों के नाम व अर्थ हेमन्त ऋतु के अर्थ से समानता रखते है।

यह शरद् ऋतु के पश्चात आती है। हेमन्त ऋतु के पश्चात् शिशिर ऋतु आती है।

निघण्टु (वैदिक शब्दकोश) में “सहस्” शब्द का अर्थ बल बताया गया है, क्योंकि सहन करना भी एक तरह से बल का ही कार्य है। इस “सहस्” शब्द से ही सहा: और सहस्य शब्द बने है। अतः यह सिद्ध हुआ कि उस ऋतु को हेमन्त ऋतु कहते है जिसमें अन्न-पानादि के उपयोग से बल की वृद्धि होती है। स्पष्ट रूप से भी यही देखने को मिलता है कि अन्य ऋतुओं की अपेक्षा हेमन्त ऋतु में अन्न-पानादि अधिक बलप्रद होते है। साथ ही सभी प्राणियों की कार्यक्षमता भी इस ऋतु में अधिक हो जाती है।

सहस् (मार्गशीर्ष) : सहस् उस मास को कहते है जिसमें बल की अभिवृद्धि होती है। सहस् मास को मार्गशीर्ष मास भी कहते है। इसका मार्गशीर्ष नाम चन्द्रमा की स्थिति के अनुसार है। जिस मास की पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा ”मृगशिरा” नक्षत्र पर होता है वह मार्गशीर्ष मास कहलाता है।

सहस्य (पौष) : सहस्य उस मास को कहते है जिसमें प्राणियों का बल स्थिर होता है। सहस्य मास को पौष मास भी कहते है। इसका पौष नाम चन्द्रमा की स्थिति के अनुसार है। जिस मास की पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा ”पुष्य” नक्षत्र पर होता है वह पौष मास कहलाता है।

शिशिर ऋतु

शिशिर ऋतु में माघ (तपस्) और फाल्गुन (तपस्य) मास आते है।

यह हेमन्त ऋतु के पश्चात आती है। शिशिर ऋतु के पश्चात् बसन्त ऋतु आती है। माघ और फाल्गुन मासों के प्रचलित नाम है। तपस् और तपस्य मासों के वैदिक नाम है जिनका सम्बन्ध ऋतु से है । तपस् और तपस्य मासों के नाम व अर्थ शिशिर ऋतु के अर्थ से समानता रखते है।

तपाः और तपस्य दोनों ही शब्द ” तपस् ” शब्द से बने हुए है। “तपस्” शब्द “तप् संतापे” धातु से बना है। यही शिशिर ऋतु में होता है। जिस ऋतु में बढ़ी हुई गर्मी वृक्षों के पत्तों को पकाकर गिराती है या शीत (ठण्ड) का शमन (शान्त करना या दबाना) करती है, वह ऋतु शिशिर ऋतु कहलाती है।

तपस् (माघ) : तपस् उस मास को कहते है जिसमें ताप की क्रमशः वृद्धि होती है, जिससे शीतकाल की फसल का पकना आरम्भ होता है। तपस् मास को माघ मास भी कहते है। इसका माघ नाम चन्द्रमा की स्थिति के अनुसार है। जिस मास की पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा ” मघा” नक्षत्र पर होता है वह माघ मास कहलाता है।

तपस्य (फाल्गुन) : तपस्य उस मास को कहते है जिसमें अन्न परिपाक का स्पष्ट परिणाम दिखाई देता है जैसे जौ, गेहूँ, चने आदि का पकना। तपस्य मास को फाल्गुन मास भी कहते है। इसका फाल्गुन नाम चन्द्रमा की स्थिति के अनुसार है। जिस मास की पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा ” उत्तरा फाल्गुनी” नक्षत्र पर होता है वह फाल्गुन मास कहलाता है।

हेमन्त और शिशिर ऋतुओं को सर्दी का मौसम माना जाता है। मार्गशीर्ष से फाल्गुन (नवम्बर से फरवरी) तक का यह मौसम स्वस्थ्य निर्माण के लिए सर्वाधिक उपयोगी होता है। इस मौसम में पाचक अग्नि बढ़ जाती है, इसलिए भोजन में अधिकतर पौष्टिक पदार्थ लिए जा सकते है। रातें बड़ी हो जाने से रात्रि के भोजन का पचने का भी काफी समय मिल जाता है।

खान-पान में ठंडी चीज़ों की अपेक्षा शरीर को गर्मी पहुँचाने वाली वस्तुओं का सेवन ही शीत ऋतु में योग्य है।

शीत ऋतु में सुबह नाश्ते में हलुवा, लड्डू, ताजी जलेबी या पौष्टिक पाक खाकर दूध पीना चाहिए।
अतिरिक्त पौष्टिक पदार्थ खाने से अग्नि मन्द ना हो जाये इसलिए विशेषकर प्रातः टहलना, सूर्यनमस्कार और यथाशक्ति व्यायाम अवश्य करना चाहिए।

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