बसंत पंचमी

माघ शुक्ला पंचमी बसंत पंचमी के नाम से विख्यात है। यह वैदिक कालीन पर्व है। इस दिन बालकों का उपनयन कर उन्हें महर्षि अपने विद्यापीठ हो में शिक्षण के लिए प्रविष्ट किया करते थे।

बसंत पंचमी का उत्सव ऋतुराज बसंत के आरंभ का है। अतः इस दिन से होरी और धमार का गाना आरंभ होता था। जौ और गेहूँ की बालें आदि भगवान को सबसे पहले अर्पण की जाती है।

इस दिन सरस्वती पूजन किया जाता है। रति और काम की पूजा का भी विधान रहा है। शास्त्रों में इस दिन विष्णु भगवान के पूजन की विधि है। मथुरा मंडल और ब्रज का यह महान उत्सव है। बसंत पंचमी की कथा से भी इस उत्सव में भगवान कृष्ण की प्रधानता सिद्ध होती है।

वेदाध्ययन के आरंभ का भी प्रधान समय यही था।

वेद कहता है बसंती ब्राह्मण ब्राह्मण पुनीत ब्राह्मणों पुनीत विद्या की अधिष्ठाती देवी सरस्वती है, अतः इस दिन सरस्वती और सब विद्याओं के निधान वेदों के रक्षक वैदिकों का पूजन उचित ही है। वैदिकों की तो पूजा ही आजकल बसंत पूजा के नाम से कहीं जाती है।

जगत के पालन करता भगवान विष्णु और परब्रह्म के पूर्ण अवतार आनंदमूर्ति भगवान कृष्ण तो इस उत्सव के अधि देवता होने ही चाहिए क्योंकि यह आनंदोत्सव। यह उत्सव आनंद विनोदमय है और इसलिए भगवान की लीला भूमि ब्रज में इस उत्सव की प्रधानता है।

यह उल्लासमय ऋतु संबंधी पर्व समाज के विभिन्न वर्गों में विविध रूप में मनाया जाता है।

विद्यार्थी तथा शिक्षा प्रेमी जनों के लिए यह सरस्वती पूजा का महान पर्व है। इस अवसर पर भगवती शारदा की पूजा के साथ-साथ संगीत नाटक आदि के कलामय उपहार द्वारा भी भगवती की आराधना की प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है।

इस अवसर पर प्राचीन काल में, राजाओं महाराजाओं की ओर से बड़ी-बड़ी विद्या गोष्ठियों का आयोजन हुआ करता था जिसमें ग्रंथकार कवि नाटक-प्रणेता तथा लेखक अपनी अपनी कृतियों को जनता तथा मर्मज्ञ मनीषियों के समक्ष उपस्थित किया करते थे और आलोचन परीक्षण के बाद में पुरस्कृत होती थी। कालिदास भवभूति आदि नाटककारों के नाटक ऐसे बसंतोत्सव पर्व पर ही जनता के समक्ष उपस्थित किए गए थे; यह बात उन नाटकों की प्रस्तावना से बिल्कुल स्पष्ट होती है।

गृहस्थी वर्ग के लिए यह आमोद प्रमोद और उल्लास का पर्व है। इस अवसर पर जबकि स्वयं प्रकृति भी नव विकसित पुष्पों का रंगीन आंचल और खिली हुई पीली सरसों की वासंती साड़ी धारण किए आनंदविभोर हो झूम उठती है तब प्राणि समुदाय का तो कहना ही क्या? प्रकृति के ही इस अनुकरण पर लोग भी पीले पीले वस्त्र धारण करते है। स्त्री-पुरुष, बालक युवा और वृद्ध सभी के चेहरों पर इस समय प्रसन्नता की एक अपूर्व झलक देखी जाती है।

बसंत ऋतुराज है। इसके आगमन के साथ ही सर्वत्र सुख शांति छा जाती है। अन्य ऋतुएँ तो सदा अपने प्रभाव से प्राणियों को सताती हुई ही आती है। बसंत में ना अधिक गर्मी है ना अधिक सर्दी। साम्यावस्था को प्राप्त हुआ प्रकृति का यह रूप रमणीय रूप संसार को कितना प्रिय लगता है, तभी तो भगवान कृष्ण ने इसे ” ऋतूनां कुसुमाकर ” कह कर अपनी विभूतियों में परीगणित किया है।

Leave A Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *