दीपावली उत्सव

दीपावली का सभी त्यौहारों में  अपना विशेष स्थान है। किसी देव या देवी के सम्मान में किया गया यह केवल एक उत्सव नहीं है, जैसा कि कृष्ण जन्माष्टमी या नवरात्र है।

दीपावली का उत्सव 4-5 दिनों तक चलता है। इसमें 4-5 दिनों तक विभिन्न कृत्य होते है – धन-पूजा, यम-दीपदान, नरकासुर पर कृष्ण विजय का उत्सव, लक्ष्मी पूजा, बलि पर विष्णु विजय का उत्सव एवं भाई-बहन का उत्सव।

पंच पर्वाह दीपावली उत्सव

कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी (धन तेरस)
कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को अकाल मृत्यु से रक्षा के लिये प्रदोष काल में यम के लिए दीपदान एवं नैवेद्य समर्पित करना
दीपावली
अमावस्या के दिन प्रातःकाल अभ्यंग स्नान और सायंकाल में दीपावली और लक्ष्मी पूजन
बलि प्रतिपदा
प्रतिपदा को बलि पर विष्णु विजय का उत्सव और गोवर्धन पूजा
भाई दूज
द्वितीया को भाई-बहन का उत्सव
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उत्सव का सामान्य स्वरुप

कार्तिक मास (पूर्णिमांत) के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी से ही पाँच दिनों तक दीप-प्रकाश एवं पटाकों के छोड़ने के कृत्य होते रहते हैं। त्रयोदशी को धनतेरस कहा जाता है। इस दिन धन्वन्तरि-जयन्ती का पर्व भी चिकित्सक लोग मनाते हैं। इसके पूर्व या उसी दिन घर, द्वार, आँगन स्वच्छ किये जाते हैं, लीपे-पोते-रंगे जाते हैं, पात्र आदि को चमका दिया जाता है।

 

दिवाली को अधिक ग्रन्थों में दीपावली और कहीं-कहीं दीपालिका की संज्ञा दी हुई है। यदि इस उत्सव के किसी एक कृत्य पर विशेष बल दिया जाता है तो उसे सुखरात्रि, यक्षरात्रि, सुखसुप्तिका की संज्ञाएँ भी प्राप्त हो गयी हैं। कुछ ग्रन्थों के अनुसार चतुर्दशी, अमावास्या एवं कार्तिक प्रतिपदा के तीन दिनों तक यह कौमुदी-उत्सव होता है।

दीपावली के त्यौहार में लक्ष्मी पूजन की ही प्रधानता है। साथ ही चतुर्दशी और अमावस्या का अभ्यंग स्न्नान (तेल मालिश कर स्नान करना), दीपावली और दीप-दान आदि ये सभी अत्यंत वैज्ञानिक भी है।

दीपावली के अवसर पर हमें सब जगह नव उत्साह और एक नई उमंग के दर्शन हो ही जाते है।

घरों में सप्ताहों पूर्व ही दीपों के उत्सव की तैयारी शुरू हो जाती है और अमावस की वह अंधकारमयी रजनी असंख्य दीपों की उज्ज्वल ज्योति से जगमगा उठती है। स्त्री, बालक, वृद्ध, युवा, सभी आनन्द-विभोर हो वरदायिनी माँ लक्ष्मी की उपासना करते हैं और उनसे अपने दीपों से प्रकाशित घर में पधारने की प्रार्थना करते हैं। नये-नये वस्त्र तथा बर्तन खरीदे जाते हैं। सभी जगह ही दीपावली का यही सामान्य रूप दिखाई देता है।

दीपावली नाम की सार्थकता

लोकप्रसिद्धि में प्रज्जलित दीपकों की पंक्ति लगा देने से “दीपावली” बनती है।
स्थान-स्थान में मण्डल बना देने से “दीपमालिका” बनती है।

अतः इस रूप में दीपावली और दीपमालिका ये दोनों नाम सार्थक हो जाते हैं। इस प्रकार की दीपावली या दीपमालिका सम्पन्न करने से परमपद प्राप्त होता है।

दीपावली का शास्त्रीय स्वरुप

ब्रह्मपुराण के अनुसार कार्तिक की अमावास्या को अर्धरात्रि के समय लक्ष्मी महारानी सदगृहस्थों के मकानों में जहाँ-तहाँ विचरण करती हैं। इसलिये अपने मकानों को सब प्रकार से स्वच्छ, शुद्ध और सुशोभित करके दीपावली अथवा दीपमालिका बनाने से लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं और उनमें स्थायी रूप से निवास करती हैं। इसलिए बड़े उत्सव के साथ घरों को धूप-दीप से सुशोभित करना चाहिए। लक्ष्मीजी को भी दक्षिणा सहित चन्दन और मालाएँ भेंट करनी चाहिए।

इसके सिवा वर्षाकाल के किये हुए अपराध (जाले, मकड़ी, धूल-धमासे और दुर्गन्ध आदि) दूर करने के हेतु से भी कार्तिकी अमावास्या को दीपावली लगाना हितकारी होता है। यह अमावास्या प्रदोषकाल से आधी रात तक रहनेवाली श्रेष्ठ होती है। यदि वह आधी रात तक न रहे तो प्रदोषव्यापिनी लेना चाहिये। यह अमावास्या महत्त्वपूर्ण दिन होता है। इसमें प्रातःकाल तैल-स्नान करके अलक्ष्मी (दुर्भाग्य एवं फटेहाली) को दूर करने के लिए लक्ष्मी-पूजा की जानी चाहिए।

लक्ष्मी-पूजा की रात्रि को सुखरात्रि कहते हैं। इस अवसर पर लक्ष्मी-पूजा के साथ-साथ कुबेर की पूजा भी होती है, जिससे सुख मिले। इससे इसी रात्रि को सुखरात्रि भी कहते हैं।

भविष्योत्तर के अनुसार अमावस्या को प्रातःकाल अम्यंग-स्नान, देव-पितरों की पूजा, दही, दूध, घी से पार्वण-श्राद्ध, भाँति-भाँति के व्यंजनों से ब्राह्मण-भोजन; दिन में राजा को अपनी राजधानी में ऐसी घोषणा करानी चाहिए कि आज बलि का आधिपत्य है, हे लोगो, आनन्द मनाओं।

लोगों को अपने-अपने घरों में नृत्य एवं संगीत का आयोजन करना चाहिए, एक-दूसरे को ताम्बूल (पान) देना चाहिए, कुंकुम लगाना चाहिए, रेशमी वस्त्र धारण करना चाहिए, सोने एवं रत्नों के आभूषण धारण करने चाहिए। नारियों को सज-धजकर गोल बनाकर चलता चाहिए, सुन्दर कुमारियों को इधर-उधर चावल बिखेरने चाहिए और विजय के लिए नीराजन (दीप घुमाना) करना चाहिए।

राजा को अर्धरात्रि में राजधानी में घूम कर लोगों के आनंदोत्सव का निरीक्षण करना चाहिए। जब अर्धरात्रि बीत जाय और पुरुषों की आँखे नींद से मतवाली हो जाये तो नारियों को चाहिए कि वे सूपों एवं ढोलकों को पीट-पीटकर शोर-गुल करें और इस प्रकार अपने घर से अलक्ष्मी को भगाये।

दिवाली उत्सव में लक्ष्मी माता की 3 तरह से उपासना

दीपावली का उत्सव माँ लक्ष्मी के आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक तीनों रूपों का उल्लासमय प्राकट्य करने वाला है।

लक्ष्मी माता का आधिभौतिक रूप धन-संपत्ति अर्थात सोना, चांदी, मणि, रत्न आदि है। आध्यात्मिक रूप शोभा है और आधिदैविक रूप भगवती पद्मा या महालक्ष्मी है जो विष्णु की प्रिया कहलाती है। इसीलिए संस्कृत भाषा के कोशों में लक्ष्मी और श्री शब्द के ये तीनों ही अर्थ मानें गए है।

हिन्दु पद्धति के अनुसार प्रत्येक आराधना, उपासना या पूजा अर्चना में आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक इन तीनों रूपों का सम्मिलित व्यवहार किया जाता है। उसी अनुसार इस उत्सव में भी सोने – चांदी के सिक्के आदि के रूप में आधिभौतिक लक्ष्मी का आधिदैविक लक्ष्मी से संबंध स्वीकार करके पूजन किया जाता है। घरों की साफ़ सफाई करना, चमकाना, सजावट करना और दीपमाला आदि से अलंकृत करना इत्यादि कार्य माँ लक्ष्मी के आध्यात्मिक स्वरूप शोभा को अभिव्यक्त करने के लिए किए जाते हैं।

इस तरह इस उत्सव में उक्त त्रिविध लक्ष्मी माता की आराधना व उपासना हो जाती है।

दिवाली का वैज्ञानिक स्वरूप

सभी उत्सवों में दीपावली का उत्सव घर-घर, गाँव-गाँव और नगर-नगर में बालक से लेकर वृद्ध तक, मूर्ख से लेकर पण्डित तक और रंक से लेकर राजा तक सर्वत्र ही आमोद प्रमोद और आनंद-विनोद का मुख्य त्यौहार है। इसलिए इसकी आनंदजनकता में तो कोई सन्देह है ही नहीं, किन्तु इसका केवल इतना ही महत्त्व नहीं है। इसके अतिरिक्त इस उत्सव का वैज्ञानिक महत्त्व भी है।

चातुर्मास्य में सभी भूमि-भाग के भीगे रहने के कारण अनेक प्रकार के जीव-जन्तु और रोगों के अधिकाधिक किटाणु चारों ओर फैल जाते हैं, उनमें से मोटे-मोटे कीट-पतंगा आदि तो शरदऋतु के आने पर भगवान भास्कर के अति-तीव्र आतप से सन्तप्त होकर अथवा शरत्काल के अनन्तर तत्काल ही आनेवासे हेमन्‍त के अतिशीत द्वारा नष्ट अथवा लुप्त हो जाते हैं, किंतु साधारण दृष्टि से तिरोहित रहनेवाले अतिसूक्ष्म कीटाणु न तो सूर्यताप से और न शीत से ही सर्वथा निवृत हो सकते हैं।

अतः उनकी निवृति के लिए कच्चे मकानों को शुद्ध गोबर, खड़ी आदि से और पक्के मकानों की चूना, कलई, रंग आदि से वर्षभर में एक बार साफ कर देना आवश्यक होता है। गोबर, चूना आदि की कीटाणुनाशकता सर्वविदित है।

इतने पर भी जो कीटाणु बच ही रहें उनकी निवृत्ति के लिए सारे घर में तेल के दीपकों की तीव्रगन्ध अत्यन्त उपयोगी होती है। इससे रहे-सहे सभी चातुर्मास्य के कीटाणु विनष्ट हो जाते हैं और निवास-स्थान रोगाणुओं से रहित और स्वास्थ्य-रक्षा में सहायक हो जाता है।

इस दृष्टि से विचार करने पर आजकल की बिजली की रोशनी शोभाजनक भले ही कही जा सके, किन्तु कीटाणु-विनाशक के रूप में उतनी अच्छी नहीं मानी जा सकती, जितनी कि तैल-दीपकों की रोशनी होती है।

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