हरितालिका तीज नारियों का प्रमुख व्रत व उत्सव है। इसे हरितालिका तीज और हरतालिका तीज दोनों नाम से पुकारा जाता है। वैसे इसका वास्तविक नाम हरितालिका तीज है। यह तीज भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाई जाती है। निर्णयसिन्धु, व्रतार्क, व्रतराज, अहल्याकामधेनु एवं धर्मशास्त्र आदि में भी इसका उल्लेख मिलता है।
पार्वती माता ने यह व्रत शंकर भगवान को पति रूप में प्राप्त करने के लिए हरितालिका तीज का व्रत किया था। और इसी व्रत के करने के फलस्वरूप पार्वती माता ने शिवजी को पति रूप में पाया था। स्वयं शंकर भगवन ने भी पार्वती माता से कहा था कि इसी व्रत के प्रभाव से उन्हें पार्वती प्राप्त हुई थी और वो उनकी अर्धांगिनी बन पाई थी।
इसका नाम हरितालिका कैसे पड़ा ?
पार्वती माता की सखियाँ उन्हें तपस्या करने के लिए हर कर ले गयी थी इसलिए इसका नाम हरितालिका पड़ा।
कुंवारी कन्यायें हरितालिका तीज का यह व्रत अच्छा पति पाने के लिए करती है और सुहागिन स्त्रियाँ अपने पति की लम्बी उम्र के लिए यह व्रत करती है। इस व्रत को निर्जल करने का विधान है। रात्रि को पूजा करने के पश्चात् ही जल व नैवैद्य ग्रहण किया जाता है।
आज भी राजस्थान के काफी हिस्सों में शिव पार्वती और संपूर्ण शिव पंचायत की बालू मिट्टी की प्रतिमाएँ बना कर उनकी पूजा करी जाती है। और अगले दिन उनका विसर्जन किया जाता है। जो लोग बालू मिट्टी की प्रतिमाएँ बना कर पूजन ना कर सके वो शिव मंदिर जाकर भी पूजन कर सकते है।
धर्मशास्त्र के अनुसार इस दिन व्रती नारी को तैल और त्रिफला के लेप से स्नान कर रेशमी वस्त्र धारण करने चाहिए। नाम, गोत्र और तिथि का नाम लेकर संकल्प करना चाहिए।
व्रतराज और धर्मशास्त्र में दिया गया संकल्प निम्न है :
” ममसमस्तपापकशयपूर्वकं सप्तजन्मराज्याखण्डितसौभाग्यादिवृद्धये उमामहेश्वरप्रीत्यर्थं हरतालिकाव्रतमहं करिष्ये। तत्रादौ गणपतिपूजनं करिष्ये। “
व्रती (व्रत करने वाले) को उमा और शिव का नमन करना चाहिए। उमा पूजन मंत्रोचार के साथ आवाहन, आसान, अर्घ्य आदि सोलह उपचारों से करनी चाहिए। उमा महेश्वर का अभिषेक कर पुष्प, बिलपत्र आदि चढ़ाने चाहिए। उमा की अंग पूजा करनी चाहिए। धूप, दीप, नैवेद्य, आचमनीय, गंध (कपूर, चन्दन, इत्र), ताम्बूल, पुंगीफल, दक्षिणा के कृत्य करने चाहिए। इसके उमा के विभिन्न नाम – गौरी, पार्वती आदि एवं शिव के विभिन्न नामों – हर, महादेव, शम्भू, महेश्वर आदि नामों से पूजा करनी चाहिए। प्रत्येक बार मंत्र के साथ नमस्कार करना चाहिए। दान भी करना चाहिए।
” माधव ( पृ. 176 ) ने व्यवस्था दी है कि यदि तृतीया तिथि द्वितीया और चतुर्थी से संयुक्त हो तो व्रत दूसरे दिन किया जाना चाहिए, जबकि तृतीया कम से कम एक मुहूर्त (दो घटिका) तक अवस्थित रहे और तब चतुर्थी का प्रवेश हो। “
धर्मशास्त्र का इतिहास
हरितालिका तीज व्रत कथा
॥ अथ हरितालिका व्रत कथा प्रारम्भ्यते ॥
सूतजी बोलते है कि मन्दार के पुष्पों की माला से जिन पार्वती जी के केश अलंकृत है और जिन भगवान शंकर के मस्तक पर चन्द्र और कंठ में कपालमाला सुशोभित हो रही है, जो पार्वती जी दिव्य वस्त्र धारण की हुई है और जो शिवजी बाघम्बर धारण किये हुए है, ऐसी पार्वती जी और शिवजी को नमस्कार है, उन्हें बारम्बार नमस्कार है।
रमणीय कैलाश पर्वत के शिखर पर बैठी हुई पार्वतीजी शंकरजी से पूछती है कि गुप्त से गुप्त व्रत जो हो वह मुझे आप सुनाइये। हे नाथ ! यदि आप प्रसन्न हैं तो सब धर्मों का सार व्रत बताइये, जिसके करने से थोड़े ही परिश्रम से बड़ा फल प्राप्त हो। हे जगत्प्रभो ! ऐसा मैंने कौन सा व्रत किया था जो आप ऐसे आदि, मध्य और अन्त रहित भर्ता मुझे मिले।
शिवजी बोले – हे देवि ! सुनो, मैं तुम्हारे आगे उस उत्तम व्रत को कहता हूँ जो अत्यन्त गुप्त तथा मेरा सर्वस्व है।
जिस प्रकार तारागणों में चन्द्र, नक्षत्रों में सूर्य, वर्णों में ब्राह्मण, देवताओं में विष्णु, नदियों में गंगा, पुराणों में भारत, वेदों में साम और इन्द्रियों में मन श्रेष्ठ है, उसी प्रकार पुराण और वेदों के सार इस प्राचीन व्रत को एकाग्रचित होकर सुनो। जिस व्रत के प्रभाव से तुमने मेरा अर्द्धासन प्राप्त किया सो मैं कहता हूँ, क्योंकि तुम मुझे अत्यन्त प्रिय हो।
भाद्रपद शुक्ल तृतीया के दिन हस्त नक्षत्र रहते व्रत के अनुष्ठान मात्र से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। पूर्व में तुमने हिमालय पर जिस बड़े व्रत (हरितालिका तीज) को किया था उसका पूरा हाल मैं सुनाऊंगा।
पार्वती जी बोली – उस सर्वोत्कृष्ट व्रत को मैंने किस प्रकार किया था सो मैं आपके मुख से सुनना चाहती हूँ।
शिवजी बोले – नाना प्रकार की भूमि तथा वृक्षों से पूर्ण हिमालय नामक एक पर्वत है। जिस पर नाना प्रकार के पक्षी, मृग, देवता, गन्धवं, सिद्ध, चारण, गुह्मक; गायन में तत्पर गन्धर्वादि सर्वदा प्रसन्नता से विचरते हैं और जो स्फटिक, सुवर्ण, वडूर्य आदि अनेक रत्नों से भूषित शृङ्गरूपी हाथों से आकाश को छूता हुआ जैसे कोई अपने मित्र के घर को छूए, बर्फ से ढका और गज की ध्वनि से पूर्ण है।
हे पार्वती ! वहाँ तुमने बाल्यावस्था में घोर तप किया था, बारह वर्ष अधोमुख हो धूम्रपान करके; चौंसठ वर्ष पके पत्तों को खाकर; माघ के महीने में जल और वैशाख में अग्नि सेवन करती रहीं। श्रावण में खाना पीना छोड़कर मैदान में तप करती रहीं ।
तब तुम्हारी यह दशा देख कर तुम्हारे पिताजी अंत्यन्त दुखी हुए कि यह कन्या किसको देनी चाहिए, ऐसी चिन्ता करने लगे। इसी अवसर पर धर्म को जानने वाले नारदजी आये। नारदजी को देखकर अर्घ्य, आसन और पाद्य (पैर धोने के लिए रखा गया जल) देकर हिमवान बोले – हे मुनिसत्तम ! आपका आना कैसे हुआ ? मेरे बड़े भाग्य से आपका आना हुआ।
नारदजी बोले – हे पर्वतराज ! मुझे श्री हरी विष्णु ने भेजा है, यह कन्यारत्न किसी योग्य पुरुष को देने योग्य है।
ब्रह्मा, इन्द्र, शिव आदि में विष्णु के समान दूसरा कोई नहीं है, इससे मेरी राय से यह कन्या उन्हीं को दे दो। शैलेन्द्र (हिमवान) बोले कि वासुदेव स्वयं जब कन्या माँग रहे हैं और आप आये हैं तो मैं अवश्य दूँगा।
नारद जी आकाश में अन्तर्धान हो पीताम्बर को धारण करनेवाले, तथा शंख, चक्र, गदाधारी श्री विष्णु के निकट गये। और हाथ जोड़कर नारदजी बोले – हे देव ! आपका विवाह निश्चित हो गया। ऐसा कहकर देवर्षि नारदजी घर चले आये।
इधर हिमवान जी ने तुमसे कहा – हे पुत्री ! मैंने तुम्हें गरुड़ध्वज विष्णु भगवान् को देने का संकल्प किया है। पिता का वचन सुन तुम अपनी सहेली के घर गई और दुःख के कारण पृथ्वी पर गिरकर विलाप करने लगी। तुम्हे विलाप करती हुई देखकर सखी बोली – हे देवि ! आप किस कारण दुःख पा रही है? सो मेरे आगे कहिये। जिससे तुमको सुख होगा वह मैं अवश्य करूँगी, इसमें कुछ संशय नहीं है ।
पार्वती, तुम बोली कि हे सखी ! मेरी प्रीति के लिए मेरे मन की अभिलाषा सुनो।
मैं महादेवजी को ही पति रूप में पाना चाहती हूँ, इसमें संशय नहीं, मेरे विचारे हुए इस कार्य को पिता ने विपरीत कर दिया। इस कारण मैं अपना शरीर का त्याग करूँगी। तुम्हारा ऐसा वचन सुनकर सखी बोली कि पिता जिस वन के बारें में नहीं जानते है उस वन में हम लोग जायंगे। पार्वती, इस प्रकार विचारकर सखी तुमको ले गई।
पिता हिमवान घर -घर देखते हुए विचारने लगे कि किस देवता, दानव या किन्नर ने मेरी कन्या को हर लिया है। नारद के आगे सत्य संकल्प किया है। अब भगवान् गरुड़ध्वज को मैं क्या दूँगा ? ऐसी चिन्ता करते हुए भूमि पर गिर पड़े। तब हाहाकार करते हुए लोग दौड़े और गिरिराज से मूर्छा का कारण पूछने लगे।
गिरिराज बोले – मूर्छा के कारण को आप लोग सुनो, मेरे कन्यारत्न को किसी ने हर लिया है; न जाने कालरूपी सर्प ने डंस लिया अथवा सिंह या व्याघ्र ने खा लिया। न जाने मेरी कन्या कहीं चली गयी या किसी दुष्ट ने हर लिया। वायु से महान् वक्ष के समान शोक और सन्ताप से पीड़ित गिरिराज (हिमवान ) काँपने लगे। तुमको देखने के लिये गिरिराज एक वन से दूसरे वन को गये। वह वन कैसा है कि सिंह व्याघ्र रीछ आदि हिंसक पशुओं के कारण वन महाभयानक प्रतीत होता था।
तुम भी सखी के साथ गहन वन में घूमती थीं। वहाँ सुन्दर नदी के तट पर बड़ी गुफा को देखा। भोजनादि को त्याग उस गुफा में प्रवेश कर, बालू मिट्टी से मेरा लिंग बनाकर मेरी आराधना करती रही। उस समय भाद्रपद शुक्ल तृतीया को हस्त नक्षत्र था। उस दिन तुमने रेत के शिवलिंग का निर्माण करके व्रत किया। रात भर मेरी स्तुति के गीत गाकर जागरण करा।
व्रतराज के प्रभाव से मेरा आसन हिलने लगा।
तब जहाँ तू सखी के साथ थी वहाँ पर मैं आया। मैं प्रसन्न हूँ, अभिरूषित वर माँगो ऐसा मेरे कहने पर तुम बोलीं – हे देव ! यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हों तो आप मेरे स्वामी बने। तथास्तु ऐसा कहकर फ़िर मैं कैलाश आ गया। और पार्वती तुमने प्रातःकाल होने पर नदी में शिवलिंग का विसर्जन किया। तब सखी के साथ वन्य कन्द मूल से पारण कर वहीं पर शयन किया।
इतने में हिमवान भी उस गंभीर वन में आ गए और चारों ओर देखते -देखते विह्वल हो जमीन पर गिरे तथा वह नदी के किनारे दो लड़कियों को सोते देख तुमको उठा कर रोने और कहने लगे कि इस भयंकर वन में व्याघ्र, भालु, सिंह आदि दुष्ट पशु निवास करते हैं, तुम क्यों यहाँ आई ?
पार्वती, तुम अपने पिताजी से बोलती हो कि हे पिताश्री ! मैंने यह जाना कि आप मुझे विष्णु को दे दोगे, यह बात आपने अच्छी नहीं की, इस कारण मैं यहाँ चली आई। हे पिताश्री ! जो आप मुझे महादेवजी को दो तो मैं घर चलूँ, नहीं तो मैंने यहीं रहने का निश्चय किया है। ऐसा ही होगा, यह कह कर हिमवान जी तुम्हें घर ले आये। पीछे विवाह के नियम से तुम्हें मेरे साथ ब्याह दिया। उसी व्रत के प्रभाव से तुमने ऐसे सौभाग्य को प्राप्त किया, मैंने अब तक इस व्रतराज को किसी से नहीं कहा था।
इस व्रतराज का नाम किस प्रकार हुआ, सो सुनो !
आलि अर्थात् सखियों से तुम हरी गई, इससे इस व्रत का नाम ” हरितालिका” हुआ।
पार्वती जी बोलीं – आपने हरितालिका तीज व्रत का नाम तो कहा, अब इसकी विधि भी कहिये, उसका क्या फल है और किसको यह व्रत करना चाहिये, यह भी कहिये।
महादेवजी बोलते है हे पार्वती ! स्त्रियों के सौभाग्य को देनेवाले इस व्रत का विधान कहते हैं; जो सौभाग्य की इच्छा करे वह यत्नपूवक इस व्रत को करे।
हरितालिका तीज के दिन बंदनवार बाँधकर केले के खम्भ गाड़े और अनेक रंग के वस्त्र अर्पण करे। चन्दन और सुगन्धयुक्त वस्तुओं से गृहमण्डप बना कर आँगन लीपे, फिर शंख, भेरी, मृदङ्गो को बजावे। अनेक प्रकार के मंगलगीत घर में करे, वहाँ पार्वती सहित बालू की मूर्ति स्थापित करे। नवीन पुष्प, गन्ध, धूप आदिकों से पूजन कर नाना प्रकार के नैवेद्य चढ़ावे और रात में जागरण करे। नारियल, सुपारी, नीम्बू, बकुल, बीजपुर, नारंगी तथा अनेक प्रकार के फलों से , जो ऋतुकाल में होनेवाले कन्दमूल हैं उनसे और गन्ध, पुष्प, घूप, दीप द्वारा इस मन्त्र से पूजा करे।
शिव, शांत, पञ्चवक्त्र, शुलधारी, नन्दी, भृंगी, महाकाल गणों से युक्त शिवजी को नमस्कार है। पार्वती, शिवजी की प्यारी प्रकृति, सृष्टि का कारण, मंगला, शिवा को नमस्कार है। हे जगत् की माता ! शिवास्वरूप, शिव (कल्याण ) को देने वाली तुमको नमस्कार है। हे सिहवाहिनि ! ब्रह्मचारिणी, जगद्धात्री तुम्हारे निमित्त नमस्कार है। हे सिंहवाहिनी ! संसार के भयताप से मेरी रक्षा करो। हे ! देवी ! हे महेश्वरि! जिस कामना से मैंने तुम्हारी पूजा की है उसी से हे माता पार्वतीजी ! मुझे सोभाग्य और सम्पत्ति दें।
शिवजी बोले – हे पार्वती ! इन मन्त्रों से मेरे सहित तुम्हारी पूजा करके विधिपूर्वक कथा सुनकर बहुत सा अन्नदान करे। यथाशक्ति ब्राह्मण को वस्त्र, सुवर्ण, गौ दे और अन्य ब्राह्मणों को भूयसी दक्षिणा दे और स्त्रियों को भूषण दे। तथा भक्ति युक्त होकर पति सहित कथा श्रवण करे।
हे देवी ! इस व्रतेश्वर के करने से जीव सब पापों से छूट जाता है। सात जन्म तक राज्य की प्राप्ति और सौभाग्य प्राप्त होता है।
जो स्त्री तृतीया (हरितालिका तीज) को भोजन करती है, वह सात जन्म तक वन्ध्या और जन्म – जन्म विधवा, दरिद्रता, पुत्रशोक वाली और दुःखभागिनी होती है। जो स्त्री तृतीया के दिन अन्न का भोजन करती है तो जन्मान्तर में शुकरी होती है। फल के भोजन से वानरी होती है। जल के पीने से सर्पिणी होती है। मांस के भोजन से बाघिन होती है। दही के खाने से बिल्ली होती है। मिष्ठान्न के भोजन से पिपीलिका ( चिऊँटी ) होती है। सब तरह की चीज खाने से मक्खी होती हैं। शयन करने ( सोने ) से अजगरी होती है और पतिवञ्चन अर्थात् पति को ठगने से मुर्गी होती है। इसलिये स्त्रियाँ हर प्रकार से इस व्रत को हमेशा करें।
जो उपवास नहीं करती वह घोर नरक में पड़ती है। चांदी, सुवर्ण, तांबा, बांस, या मिट्टी के पात्र में अन्न रख के वस्त्र, फल, दक्षिणा सहित श्रेष्ठ ब्राह्मण को दान दे और अंत में पारण करें। हे पार्वती जो इस प्रकार से व्रत को करती है वह तुम्हारे समान पति के साथ भोग करती है। पृथ्वी में अनेक भोगों को भोगकर पश्चात् शिवजी की सायुज्य पदवी को प्राप्त होती है। हजार अश्वमेध और सौ वाजपेय यज्ञ का फल इस कथा के श्रवण करने से प्राप्त होती है। हे देवि ! इस प्रकार यह व्रतराज जो तुम्हारें आगे वर्णत किया है, इसके अनुष्ठान मात्र से कोटि यज्ञ का पुण्य प्राप्त होता हैं।
॥ इति श्रीभविष्योत्तरपुराणे हरगौरीसंवादे हरितालिका व्रतकथाया भाषाटीका समाप्तम् ॥
इस वर्ष 2020 में हरितालिका तीज 21 अगस्त को है। सभी को हरितालिका तीज की हार्दिक शुभकामनायें।