निर्जला एकादशी वर्ष 2020 में 02 जून, मंगलवार को है। यह ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष में आती है।
॥ अथ ज्येष्ठशुक्लैकादशी कथा ॥
महाराजा परीक्षित के पुत्र जन्मेजय एक बहुत बड़ा यज्ञ करते है। इस महायज्ञ में सूतजी भी उपस्थित होते है। सूत जी ऋषियों की एक सभा बुलाते है। महर्षि शौनक उस सभा के अध्यक्ष होते है। इस सभा में सूतजी सभी को महाभारत की कथा सुनाते है। और साथ ही एकादशियों की भी कथा सुना रहे होते है। शौनक आदि ऋषि-मुनि बड़ी श्रद्धा से सूतजी से इन एकादशियों की कल्याणकारी व पापनाशक रोचक कथाएँ सुनकर आनन्दमग्न हो रहे थे। अब सबने ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी की कथा सुनने की प्रार्थना करी ।
तब सूतजी ने कहा- महर्षि व्यास से एक बार भीमसेन ने कहा “हे महाबुद्धि ! हे पितामह ! मेरा परम वचन सुनिये। युधिष्ठिर, माता कुंती और द्रौपदी, अर्जुन, नकुल, सहदेव, ये सब एकादशी को हे सुव्रत ! कभी भोजन नहीं करते हैं ओर वे मुझसे भी सदा कहते हैं कि हे वृकोदर ! तू भोजन मत कर; और हे तात ! में उनसे कहता हूँ कि मुझसे भूखा नहीं रहा जाता । में विधिपूर्वक दान और भगवानका पूजन करूंगा; सो बिनाही उपवास मुझे एकादशी व्रत का फल कैसे मिले ?”
भीमसेन का वचन सुनकर व्यासजी ने यह वचन कहा।
व्यासजी बोले – जो तुमको स्वगे बड़ा प्यारा है और नरक बुरा लगता है तो दोनों पक्षों में एकादशी को भोजन नहीं करना चाहिये ।
भीमसेन बोले – हे महाबुद्धि पितामह ! में तुमको कहता हूं हे मुनिराज ! जब एक वार के भोजन करने पर भी मुझसे नहीं रहा जाता तो उपवास कैसे होय ? क्योंकि वृक नामक अग्नि सदा मेरे पेट में रहती है । जब में बहुत सा अन्न खाता हूं तब मुझे शांति होती है; हे महामुनिजी ! मैं एक उपवास करने को समर्थ हूं, सो आप मुझे एक व्रत निश्चय करके बताओ, कि जिससे मेरा कल्याण हो ।
व्यासजी बोले -तुमने मुझसे मनुष्य के ओर वेद के कहे हुये धर्म सुने । परन्तु हे नराधिप ! कलियुग में उनका करना कठिन है; उसका सहज उपाय यह है, कि जिसमें धन भी थोड़ा लगे ओर थोड़े क्लेश से बहुत सा फल मिले । वह सब पुराणोंका सार में तुझसे कहता हूं। दोनों पक्षोंमें जो एकादशी के दिन भोजन नहीं करता है, वह नरक को नहीं जाता है ।
व्यासजीका वचन सुनकर भीमसेन पीपल के पत्तेके समान कांप उठे । और वह महाबाहु भीमसेन भयभीत होकर यह वचन बोले। भीमसेनने कहा -हे पितामह ! में कया करूँ ? में व्रत करनेको समर्थ नहीं हूं । हे स्वामी ! मुझसे अधिक फल देनेवाले एक व्रत को कहिये ।
व्यासजी बोले – वृष या मिथुन के सूर्य में ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की जो एकादशी होती है, उसका यत्नपूर्वक निर्जल व्रत करना चाहिये; स्नान ओर आचमन में जल वर्जित नहीं है । उससे अधिक पीने से व्रत खंडित हो जाता है और पंडित जल को एकादशी के सूयोदय से द्वादशी के सूर्योदय तक न पिये । सो बिना ही यत्न किये मनुष्य बारह एकादशियों का फल पाता हैं; फिर द्वादशीके दिन अच्छा सबेरा होनेपर स्नान करे; फिर विधिपूर्वक ब्राह्मणों को जल ओर सुवर्ण का दान करे, उसके बाद वह व्रती कृतकृत्य होकर ब्राह्मणोंके साथ भोजन करे ।
हे भीमसेन ! यों करनेसे जो पुण्य होता है उसे सुनो, कि एक वर्ष भर में जितनी एकादशी होती हैं; उन सबका फल इसके करनेसे होता है, इसमें मुझे संदेह नहीं है।
शंख चक्र और गदा को धारण करनेवाले भगवान ने मुझसे यह कहा है । ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत निर्जल करने से जो फल मिलता है उसे हे भीमसेन ! सुनो सब तीर्थो में जो पुण्य होता है ओर सब दानोंका जो फल होता है, हे वृकोदर ! वही फल इस एकादशीके करने से होता है ।
हे भीमसेन ! वर्ष भर में जितनी कृष्ण पक्ष ओर शुक्ल पक्ष की एकादशी हैं, उन सबके ब्रत का फल इस एक एकादशी के करने से हो जाता है, इसमें संदेह नहीं है ।
यह व्रत करनेसे यह धन धान्य को करने वाली, बड़ी पवित्र, पुत्र और आररोग्य के फल को देनेवाली हे।
हे नरव्याघ्र ! यह मैं तुझसे सत्य कहता हूँ । बड़े भयंकर काले पीले भयानक दंड और फांसी को लिये ऐसे यमके दूत मरते समय उसकी दृष्टि के सामने नहीं आते हैं ।
सूतजी आगे फिर राजा जन्मेजय से कहते है कि – ओर हे राजन् ! इस एकादशीका व्रत करने से पीतांबरको धारण किये सुन्दर रूप, चक्र हाथ में लिये मनके समान वेगवाले, अंतकाल में व्रती मनुष्य को विष्णु की पुरी को ले जाते हैं, इसलिये सब भांति से इसको निर्जल करनी चाहिये । फिर जलधेनुका दान करने से मनुष्य सब पापोंसे छूट जाता है यह सुनकर हे जनमेजय ! पांडव इस व्रत को करने लगे थे ओर उस दिन से भीमसेन ने भी इस सुन्दर निर्जला का व्रत किया और तभी से यह एकादशी इस संसार में भीम एकादशी के नाम से और द्वादशी पांडवद्धादशी के नाम से प्रसिद्ध हुई ।
और हे राजा ! भीमसेन ने जो निर्जल व्रत किया तो अत्यंत भूख-प्यास के मारे बड़े कष्ट से दो प्रहर तो बिताये और तीसरे प्रहर जब नहीं रहा गया तो गंगा में गोता लगाया । वहां जब मन माना स्नान कर चुका तब उसे कुछ चैन हुआ और जैसे व्यासजी ने कहा था उसी तरह बड़ी कठिनता से उसने रात्रि भी बिताई ।
इसलिये दूसरी बार भी अवश्य स्नान करना चाहिये ।
और हे राजा ! वैसे ही तुम भी सब पाप दूर करने के लिये बड़े जतन से यह निर्जल व्रत और भगवान का पूजन करो ।
इस पर राजा जन्मेजय बोलता है कि हे देवेश ! आज मैं निर्जल व्रत करूंगा ओर हे भगवान् ! तुम्हारे दिन अथोत् एकादशी के दूसरे दिन भोजन करूंगा । बाद उसने इस मंत्रको उच्चारण करके और जितेन्द्री होकर सब पापोंके नाशके लिये श्रद्धा से व्रत किया ।
स्त्री का व पुरुष का सुमेरु ओर मंदराचल के समान भी पाप क्यों ना हो एकादशी के प्रभावसे सब भस्म हो जाता है । और हे राजन् ! जो उस दिन जल धेनु का दान न कर सके तो घट वस्त्र से ढँक कर सुवर्ण सहित घटका दान करे । जो इस एकादशी को जल का नियम करता है वह बड़ा पुण्य का भागी है; और जो मनुष्य इस एकादशी के दिन प्रहर प्रहर में स्नान, दान, जप ओर होम करता है उसे प्रति प्रहर में करोड़ पल सोने के दानका फल होता है; और वह सब अक्षय होता है, यह श्रीकृष्णजी ने स्वयं कहा है ।
हे राजन् ! जो निर्जला एकादशी का व्रत किया तो और धर्म करने का क्या काम है ?
मनुष्य भक्तिपूर्वक इसी के व्रत से विष्णु पद को प्राप्त होता है; हे कुरुश्रेष्ठ ! इस दिन जो सुवर्ण, अन्न ओर वस्त्र दान किया जाता है, देनेवाले का वह सब अक्षय होता है ।
जो कोई एकादशी के दिन अन्न खाता है, वह पाप खाता है, और इस लोक में चांडाल होकर मरने पर उसकी परलोक में बुरी गति होती है ; ओर जो ज्येष्ठशुक्ला द्वादशी युक्त एकादशी का व्रत करके दान देंगे वे मोक्ष को जाते होंगे । बह्यहत्यारा, शराब पीने वाला, चोर, गुरुद्रोही ओर सदा झूठ बोलने वाला ये निर्जला का व्रत करके उन सब पापोंसे छूट जाते हैं।
हे राजेन्द्र ! निर्जला एकादशी के दिन यह व्रत करनेवाले को यह विशेष नियम है, कि स्त्री पुरुषों को श्रद्धायुक्त और जितेन्द्रिय होना चाहिये । वह जलशायी भगवानका पूजन करे और जलशायी घेनु का या प्रत्यक्ष घेनु का दान करे; जो ना मिले तो हे नृपश्रेष्ठ घृतधेनु का दान करे ।
हे धर्मश्रेष्ठ ! अनेक प्रकार के सुन्दर मिष्ठान्नों से प्रयत्नपूर्वक ब्राह्मणों को संतुष्ट करे ओर यथाशक्ति दक्षिणा देवे । हे धर्मश्रेष्ठ ! उनको संतुष्ट करने से मोक्ष के देने वाले भगवान् शीघ्र प्रसन्न होते हैं। जिन्होंने इस एकादशी का व्रत नहीं किया उन्होंने अपनी आत्मा से ही बैर किया । ओर वे पापी, दुराचारी ओर दुष्ट हैं, इसमें संदेह नहीं है।
जिसने इस एकादशी का व्रत किया, उसने सदा दुराचारी ऐसे अपने कुल के एक सौ एक पुरुष आगे के और एक सौ एक पुरुष पीछे के, अपने सहित भगवान के मंदिर में पहुंचा दिये । और जिन्होंने शांत वृत्ति से एवं दान में तत्पर होकर भगवान का पूजन किया ओर इस एकादशी का व्रत करके रात्रिको जागरण किया उनकी भी सौ पीढ़ियां आगे-पीछे की स्वर्ग को जाती हैं; अन्न जल, गो, वस्त्र, शय्या, और सुन्दर आसन, कमंडल ओर छत्री ये सब निर्जला एकादशी के दिन देना चाहिये। और जो उत्तम सुपात्र ब्राह्मण को उपानह का दान करता है, वह सुवर्ण के विमान में बैठकर स्वर्ग को जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं हे ।
जो मनुष्य इस कथा को भक्ति से सुनते या सुनाते हैं, वे दोनों स्वर्ग को जाते हैं इसमें कुछ शक नहीं है । सू्यग्रहण के दिन कुरुक्षेत्र में श्राद्ध करनेसे जो फल मिलता है, इसकी कथा सुनने से मनुष्य वह फल पाता है ।