नारद के 5000 वर्ष प्राचीन सुशासन के सिद्धांत

सुशासन (Good Governance) अर्थात अच्छा शासन। श्रीमद् भगवतगीता, यजुर्वेद, महाभारत, चाणक्य के अर्थशास्त्र, शुक्रनीति आदि में सुशासन के विस्तृत नियम वर्णित है। सुशासन किसी भी इकाई के अच्छे संचालन की एक कला है। आज से 5000 वर्ष पूर्व देवर्षि नारद युद्धिष्ठिर को सुशासन से सिद्धांत बता चुके थे। नारद ने युधिष्ठिर को सुशासन का उपदेश कुशल प्रश्न के माध्यम से करा था।

एक दिन महाराजा युधिष्ठिर जब इंद्रप्रस्थ में अपनी दिव्य सभा में विराजमान थे तब वहाँ देवर्षि नारद अन्य ऋषियों के साथ पधारते है। धर्मराज युद्धिष्ठिर नारद जी को आया हुआ देख कर सभी भाइयों के साथ उठ कर खड़े हो जाते है और विनयपूर्वक झुक कर नमस्कार करते है और उनका आदर सत्कार करते है और योग्य आसान पर बिठाते है।

प्रसन्न मन से नारद ने युधिष्ठिर को धर्म-अर्थ-काम का उपदेश दिया। यह उपदेश प्रश्नों के रूप में है और किसी भी राजा या शासक के कर्तव्यों की एक विस्तृत सूची है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ‘गुड गवर्नेंस’ अर्थात सुशासन के लिए हम इन प्रश्नों के माधयम से शिक्षा ग्रहण कर सकते है।

नारद जी ने जो कुशल प्रश्न पूछे वो इस प्रकार है:

  1. धर्मराज ! आपके धन का ठीक उपयोग तो होता है ना ?
  2. आपका मन तो धर्म के कार्य में खूब लगता होगा? आशा है आप सुखी होंगे। आपके मन में कभी बुरे विचार नहीं आते होंगे ।
  1. अर्थ, धर्म और काम के लिए अलग अलग समय निश्चित कर लिया है ना ?
    • नारद जी आगे कहते है कि राजा में छः गुण होने चाहिए:
      • व्याखयानशक्ति
      • वीरता
      • मेधावीपन
      • परिणामदर्शिता
      • नीति – निपुणता
      • कर्तव्याकर्तव्य (कर्त्तव्य उल्लेख या विवरण) विवेक
    • इन गुणों के द्वारा निम्न सात उपायों का निरिक्षण (जाँच) करना चाहिए:
      • मन्त्र
      • औषधि
      • इंद्रजाल
      • साम
      • दाम
      • दण्ड
      • भेद
    • और निम्न चौदह दोषों पर भी ध्यान रखना चाहिए:
      • नास्तिकता
      • झूठ
      • क्रोध
      • प्रमाद
      • दीर्घ-सूत्रता
      • ज्ञानियों का संग नहीं करना
      • आलस्य
      • इन्द्रियपरवशता
      • केवल अर्थ का ही चिंतन करना
      • मूर्खो से सलाह करना
      • निश्चित कार्य में टालमटोल करना
      • सलाह को गुप्त नहीं रखना
      • समय पर पर्व-उत्सव नहीं करना
      • एक साथ कई शत्रुओं पर चढ़ाई कर देना
  1. क्या आप इन चौदह दोषों से बच कर, अपनी स्वयं की शक्ति और शत्रुओं की शक्ति का ठीक ठाक ज्ञान रखते है ?
  2. अपनी शक्ति और शत्रु की शक्ति के अनुसार सन्धि या विग्रह (युद्ध) करके आप अपनी खेती-बारी, व्यापार, किला, पुल, हाथी-घोड़े, हीरे-सोने आदि की खानें, कर की वसूली, उजाड़ प्रांतों में लोगो को बसाना आदि कार्यों की देखरेख अच्छे से करते है ?
  3. हे युधिष्ठिर ! आपके राज्य के सातों अंग – स्वामी,मन्त्री, मित्र, खजाना, राष्ट्र, दुर्ग और पुरवासी शत्रुओं से मिले तो नहीं है ?
  4. धनी लोग बुरे व्यसनों से बचे हुए तो है ?
  5. आपके प्रति उनकी प्रेम दृष्टि तो बनी हुई है ना ?
  6. कहीं आपके शत्रु के गुप्तचर अपना विश्वास जमाकर आपसे या आपके मंत्रियों से आपका सलाह मशविरा जान तो नहीं लेते ?
  7. आप अपने मित्र, शत्रु, उदासीन लोगों के सम्बन्ध में यह ज्ञान तो रखते है ना कि वो क्या करना चाहते है ?
  8. आप मेल-मिलाप या वैर-विरोध समय के अनुसार ही करते है ना ?
  9. उदासीनों के प्रति आप विषम दृष्टि तो नहीं रखते है ?
  10. आपके मन्त्री आपके ही समान ज्ञानवृद्ध, पुण्यात्मा, समझदार, कुलीन और प्रेमी तो है ना ?
  11. युधिष्ठिर! विजय का मूल है अपने विचारों को गुप्त रखना । आपके शास्त्रज्ञ मन्त्री आपके विचारों और संकल्पों को सुरक्षित तो रखते है ना ? हे राजन! देश की रक्षा इसी प्रकार होती है ।
  12. शत्रु कहीं आपकी बातों का पता तो नहीं लगा लेते है ?
  13. आप असमय ही निद्रा के वश में तो नहीं हो जाते हो ?
  14. आप ठीक समय पर जाग तो जाते है ?
  15. रात्रि के पिछले भाग में जाग कर आप अपने अर्थ के संबंध में विचार तो करते है ना ?
  16. कहीं आप अकेले या बहुतों के साथ मंत्रणा तो नहीं करते है ?
  17. आपकी सलाह कहीं शत्रु देश तक तो नहीं पहुँच जाती है ?
  18. थोड़े ही प्रयत्न से बड़े बड़े कार्य सिद्ध हो जाये, ऐसा सोच कर कार्य प्रारम्भ करते है ना ?
  19. कहीं ऐसे कार्यों में आलस्य तो नहीं कर बैठते है ?
  20. कहीं किसानों के काम आपके अनजाने तो नहीं रहते है ?
  21. उन पर आपका विश्वास तो है ना ? उनकी ओर से उदासीन न हो बैठिएगा, उनका प्रेम ही राज्य की उन्नति का कारण है। किसानों का काम विश्वसनीय, निर्लोभ और कुलीनों से ही करवाना चाहिए ।
  22. आपके कार्यों की सूचना, सिद्धि प्राप्त होने से पहले ही तो लोगों को नहीं मिल जाती ?
  23. आपके आचार्य धर्मज्ञ एवं सर्वशास्त्रों में निपुण होकर कुमारों को अच्छे से युद्ध शिक्षा तो देते है ना ?
  24. आप हजारों मूर्खों के बदले एक विद्वान् का संग्रह तो करते है ना ? विद्वान् ही विपत्ति के समय रक्षा कर सकता है।
  25. आपके सब किलों में धन,धान्य, अस्त्र,शस्त्र, जल,यन्त्र, कारीगर और सैनिकों का ठीक-ठीक प्रबन्ध है ? यदि एक भी मन्त्री मेधावी, संयमी और चतुर हो तो राजा या राजकुमार को विपुल सम्पत्ति का स्वामी बना देता है ।
  26. आप शत्रु पक्ष के मन्त्री, पुरोहित, युवराज, सेनापति, द्वारपाल, अंतर्वेशिक, करागाराध्यक्ष, खजांची, कार्य के कृत्याकृत्य का निर्णायक,प्रदेष्टा, नगराधिपति (कोतवाल), कार्य-निर्माणकर्ता,धर्माध्यक्ष, सभापति, दण्डपाल, दुर्गपाल, सीमापाल और वन विभाग के अधिकारी पर तीन-तीन अज्ञात गुप्तचर रखते है न ? पहले तीनों को छोड़ कर अपने पक्ष के शेष अधिकारियों पर भी तीन-तीन छिपे गुप्तचर रखने चाहिए । आप स्वयं सावधान रह कर अपनी बात शत्रुओं से छिपावे और उनके काम का पता लगावें ।
  27. यह तो बताइये कि आपका पुरोहित कुलीन, विनयी और विद्वान तो है ना ?
  28. वह किंकर्तव्यविमूढ़ एवं निंदक तो नहीं है ? आप उसका ठीक-ठीक सत्कार करते होंगे ।
  29. आपने बुद्धिमान, सरल, एवं विधि-विधान का ज्ञाता ऋत्विज नियुक्त तो कर रखा है ना ?
  30. वह हवन की हुई और की जानेवाली सामग्री का निवेदन तो कर जाता है ना ?
  31. आपका ज्योतिषी शास्त्र के सारे अङ्गों का विशेषज्ञ, नक्षत्रों की चाल, वक्रता आदि का ज्ञाता एवं उत्पात आदि को पहले से जान लेने में निपुण तो है ना ?
  32. आपने अपने कर्मचारियों को कहीं नीचे-ऊँचे अयोग्य काम में तो नहीं लगा रखा है ?
  33. आप अपने निश्छल, कुलक्रमागत और सदाचारी मंत्रियों को बराबर कार्यों का निर्देश तो देते रहते है ना ?
  34. आपके मन्त्री कहीं शील-सौजन्य और प्रेम को तिलांजलि देकर प्रजा पर कठोर शासन तो नहीं करते ?
  35. जैसे पवित्र याज्ञिक पवित्र यजमान का और स्त्रियाँ व्यभिचारी पुरुष का तिरस्कार कर देती है, वैसे ही कहीं प्रजा अधिक कर लेने के कारण आपका अनादर तो नहीं करती ?
  36. आपका सेनापति तेजस्वी, वीर, बुद्धिमान, धैर्यशाली, पवित्र, कुलीन, स्वामिभक्त और चतुर तो है ना ?
  37. आपकी सेना के सब दलपति सब प्रकार के युद्धों में चतुर,निष्कपट,शूरवीर और आपके द्वारा सम्मानित तो है ना ?
  38. आप अपनी सेना के भोजन और वेतन का प्रबंध समय पर ठीक प्रकार से तो करते है ना ?
  39. कहीं देरी और कमी तो नहीं करते ? भोजन और वेतन ठीक समय पर नहीं मिलने से सैनिकों को कष्ट होता है और वो अपने स्वामी के ही विद्रोही बन बैठते है ।
  40. आपके कुलीन कर्मचारी क्या आपके प्रति ऐसा प्रेम रखते है कि आवश्यकता होने पर आपके लिये अपने प्राण भी न्यौछावर कर दे ?
  41. कोई यह चेष्टा तो नहीं कर रहा है कि सारी सेना उसकी इच्छा के अनुसार चलने लगे और आपकी आज्ञा का उल्लंघन कर दे ?
  42. जब कोई कर्मचारी बहादुरी का काम करता है, तब आप उसका विशेष सम्मान करके उसका भोजन और वेतन बढ़ा देते है ना ?
  43. आप विद्याविनयी, ज्ञानी एवं गुणी पुरुषों की यथा योग्य दान के द्वारा सेवा करते है ना ?
  44. हे राजन ! जो लोग आपकी रक्षा के लिये मर मिटते है या अपने को संकट में दाल देते है, उनके बाल बच्चों की रक्षा तो आप करते है ना ?
  45. जब निर्बल शत्रु युद्ध में पराजित होकर आपकी शरण में आता है, तब आप पुत्र के समान उसकी रक्षा तो करते है ना ?
  46. सारी प्रजा आपको निष्पक्ष, हितकारी एवं माता-पिता के समान मानती है ना ?

पहले अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके, इन्द्रियों के अधीन शत्रुओं पर विजय प्राप्त की जाती है । शत्रुओं को वश में करने के लिए साम, दान, दण्ड आदि सभी उपायों का उपयोग करना चाहिये । अपने राज्य की रक्षा की व्यवस्था करके शत्रु पार चढ़ाई करनी चाहिये और उसे जीत कर फिर उसी राज्य पर स्थापित कर देना चाहिये । अवश्य ही आप ऐसा ही करते होंगे ।

  1. आप अपने कुटुम्बी, गुरुजन, वृद्ध, व्यापारी, कारीगर, आश्रित और दरिद्रों का धन-धान्य से सदा-सर्वदा भरण पोषण तो करते है ना ?
  2. जो लोग आमदनी और खर्चे के काम में में नियुक्त है, वे प्रतिदिन आपके सामने अपना हिसाब तो पेश करते है ना ?
  3. कभी किसी होनहार एवं हितैषी कर्मचारी को बिना अपराध के ही पदच्युत तो नहीं करते है ?
  4. कहीं किसी काम में लोभी, चोर, शत्रु अथवा अनुभवहीन की तो नियुक्ति नहीं हो गयी है ?
  5. कहीं चोर, लालची राजकुमार,रानियाँ या स्वयं आप ही देशवासियों को दुःख तो नहीं देते ?
  6. किसानों को सदा प्रसन्न रखना चाहिए। आपके राज्य में जल से लबालब भरे हुए तालाब तो बहुतायत से है ना ?
  7. कहीं आपने खेती को वर्षा के भरोसे तो नहीं छोड़ रखा है ? किसान का बीज और भोजन कभी नष्ट नहीं होना चाहिये । आवश्यकता होने पर थोड़ा सा ब्याज लेकर उन्हें धन भी देना चाहिए ।
  8. आपके राज्य में खेती, गोरक्षा और व्यापार सम्बन्धित लेन-देन ईमानदारी से तो होते है ना? धर्मानुकूल व्यापार से ही प्रजा सुखी होती है ।
  9. आपके राज्य में न्यायाधीश, तहसीलदार, सरपंच,पेशकार और गवाह – ये पाँचो प्रजा के हित में तत्पर और बुद्धिमानी से काम करने वाले है ना ?
  10. नगर की रक्षा के लिये गाँवों की रक्षा भी उतनी ही आवश्यक है। प्रान्तों की रक्षा का काम भी ग्राम-रक्षा के समान ही हाथ में लेना चाहिये। वहाँ के समाचार तो निश्चित समय पर मिला करते है ना ?
  11. आपके राज्य में अपराधी,चोर आदि लुक-छिपकर गाँवों को लुटते तो नहीं है ?
  12. आप स्त्रियों को सुरक्षित और संतुष्ट तो रखते है ?
  13. कहीं आप उन पर विश्वास करके उन्हें गुप्त बात तो नहीं बता देते ?
  14. आप कहीं भोग-विलास में लिप्त होकर विपत्ति की उपेक्षा तो नहीं कर बैठते ?
  15. आपके अंगरक्षक और सैनिक लाल वस्त्र पहने हाथों में खड्ग लिये आपकी रक्षा के लिये हमेशा तैयार तो रहते है ना ?
  16. आप अपराधियों के लिए यमराज और पूजनीयों के लिए धर्मराज तो है ना ?
  17. आप प्रिय एवं अप्रिय व्यक्तियों की भलीभाँति परीक्षा (जाँच) करके ही व्यवहार करते है ना ?
  18. शरीर की पीड़ा तो मिटती है औषधियों के सेवन से तथा मन की पीड़ा मिटती है ज्ञानी पुरुषों के सत्संग से। आप उनका यथायोग्य सेवन तो करते है ना ?
  19. आपके वैद्य अष्टांग चिकित्सा में निपुण,हितैषी , प्रेमी एवं शरीर की देख-रेख रखमने वाले है ना ?
  20. कहीं आप लोभ, मोह या अभिमान से अर्थों एवं प्रत्यार्थियों (विरोधियों) की अपेक्षा तो नहीं कर देते ?
  21. आप लोभ, मोह, विश्वास अथवा प्रेमसे अपने आश्रित जनों की जीविकामें बाधा तो नहीं डालते ?
  22. आपके पुरवासो एवं देशवासी शत्रओंसे घूस लेकर ओर मिल-जलकर भीतर-ही-भीतर आपका विरोध तो नहीं करते है ?
  23. प्रधान-प्रधान राजा प्रेमपरवश होकर आपके लिये प्राणोंको बलि देनेके लिये तयार रहते हैं या नहों ?
  24. आपकी विद्वता और गुणों के कारण ब्राह्मण ओर साधु आपकी कल्याणकारिणो प्रशंसा करते हैं या नहीं ?
  25. आप उन्हें दक्षिणा देते हैं या नहीं ? ऐसा करना आपके लिये स्वर्ग ओर मोक्ष का हेतु है।
  26. आपके पूर्वजों ने जिस वेदिक सदाचारका पालन किया था, उसका ठोक-ठीक पालन करते हैं ना ?
  27. आपके महल में आपको आँखोंके सामने गुणवान्‌ ब्राह्मण स्वादिष्ट और स्वास्थ्यकर भोजन करके दक्षिणा तो पाते हैं ना ?
  28. आप पूरे संयम और एकाग्र मन से समय-समयपर, यज्ञ-याग आदि तो करते हो होंगे । जाति-भाई, गुरु, बढ़े, देवता, तपस्वी, देव-स्थान, शुभ वक्ष ओर॑ ब्राह्मणों को नमस्कार तो करते हैं ना ?
  29. आप किसीके मनमें शोक या क्रोध तो नहीं उभाड़ते ?
  30. कोई मनुष्य अपने हाथमें मङ्गल-सामग्री लेकर आपके पास सर्वदा रहता हैना ?
  31. आपकी यह मंगलमयी धर्मानुकूल वृति सर्वदा एक-सी रहती तो है ना ? ऐसी वृति आयु और यशको बढ़ाने वाली एवं धर्म, अर्थ और कामको पूर्ण करनेवाली है। जो ऐसी वृति रखता है, उसका देश कभी संकटग्रस्त नहीं होता, सारी पृथ्वी उसके वश में हो जाती है। वह सुखी होता है।
  32. धर्मराज ! कहीं आपके शास्त्र कुशल मंत्री अज्ञानवश किसी श्रेष्ठ पवित्र निरपराध पुरुष को चोर या दोषी समझ कर सताते तो नहीं हैं ?
  33. कहीं आपके कर्मचारी घूस लेकर प्रमाणित चोर को बिना दण्ड के ही छोड़ तो नहीं देते ?
  34. कभी धनी एवं दरिद्र के विवाद में आपके कर्मचारी धनके लोभसे दरिद्रों के साथ अन्याय तो नहीं कर बैठते हैं ?

मैंने पहले जिन चौदह दोषों का वर्णन किया है, उनसे आपको अवश्य बचना चाहिये । वेदकी सफलता यज्ञसे, धन की सफलता दान ओर भोगसे, पत्नीकी सफलता आनन्द ओर संतान से एवं शास्त्र की सफलता शील तथा सदाचार से होती है ।

  1. दूर-दूरसे व्यापार करनेवाले वैश्यों से ठीक-ठीक कर तो वसुल होता है ना ?
  2. राजधानी एवं देश में व्यापारियों का सम्मान तो होता है ?
  3. वे कहीं धोखे-धड़ी में आकर ठगे तो नहीं जाते ?
  4. आप गुरुजनोंसे प्रतिदिन धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्रका श्रवण तो करते हैं ?
  5. खेती-बारी से उत्पन्न होनेवाले अन्न, फूल, फल, गोरस, मधु, घृत आदि पदार्थ धर्म-बद्धिसे ब्राह्मणोंकों दिये जाते हैं ना ?
  6. आप अपने कारीगरों को उचित सामग्री, वेतन ओर काम तो देते हैं ना ?
  7. भलाई करनेवालों के प्रति भरी सभा में कृतज्ञता-ज्ञापन और आदर-सत्कार का भाव तो दिखलाते हैं ना ?
  8. आप सभी प्रकारके सूत्रग्रन्थ जैसे हस्तिसूत्र, रथसूत्र, अश्वसूत्र, अस्त्रसूत्र, यन्त्रसूत्र और नागरिकसूत्र का अभ्यास तो करते ही होंगे। आप सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्न,
  9. मारणप्रयोग, ओषधियों के विषैले योग तो वश्य जानते होंगे ?
  10. आप अग्नि, हिंसक जन्तु, रोग एवं राक्षसों से समूचे राष्टकी रक्षा करते है ना ?

अन्धे, गूंगे, लँगड़े, लूले, अनाथ एवं साधु-सन्यासियों के धर्मतः रक्षक आप ही हैं । महाराज ! राजा के लिये छः दोष अनर्थकारी हैं – निद्रा, आलस्य, भय, क्रोध, मृदुता और दीर्घसूत्रता ।

नारद जी ने जो ये प्रश्न किये थे, वो महाभारत काल में तो प्रासंगिक थे ही , साथ ही वो प्रश्न आज भी उतने ही प्रासंगिक है। वो कुशल प्रश्न अपने आप में एक पूर्ण व समृद्ध प्रशासनिक आचार संहिता है,जिससे आज भी हम शिक्षा ले सकते है । महाभारत और रामायण काल की उत्कृष्ठ भारतीय संस्कृति से हमें प्रत्येक व्यक्ति के कर्त्तव्य के बारें पता चलता है। वो कर्त्तव्य मात्र निर्देश नहीं थे साथ में मार्गदर्शन भी थे,जिससे सबका बहुमुखी विकास हो सके।

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