श्रावण पुत्रदा एकादशी (शुक्ल पक्ष) व्रत कथा

श्रावण पुत्रदा एकादशी का व्रत वर्ष 2020 में 30 जुलाई, गुरुवार को है। यह श्रावण मास के शुक्ल पक्ष में आती है। इसे पवित्रा एकादशी भी कहा जाता है।

॥ अथ श्रावणशुक्लैकादशी कथा ॥

युद्धिष्ठिर कृष्ण भगवान से बोलते है – हे मधुसूदन ! श्रावण शुक्ल पक्ष की एकादशी का क्या नाम हे? सो कृपा करके मुझे कहिये।

श्रीकृष्णजी बोले – हे राजन ! मैं बड़े बड़े पापों की नाश करने वाली श्रावण पुत्रदा एकादशी व्रत की कथा कहता हूं, तुम सावधान होकर सुनो, कि जिसके सुनने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है।

श्रावण पुत्रदा एकादशी
श्रावण पुत्रदा एकादशी

पहले द्वापर युग के आदि (आरम्भ) में माहिष्मती पुर में महीजित्‌ नाम का राजा राज्य करता था। वह पुृत्रहीन था; इसलिये उसे राज्य का सुख अच्छा नहीं लगता था; क्योंकि, पुत्रहीन को इस लोक और परलोक में सुख नहीं होता है।

इस राजा को पुत्र के लिये यत्न करते करते बहुत सा काल बीत गया, परन्तु मनुष्यों को सब सुख देने वाला ऐसा पुत्र राजा को नहीं मिला। राजा अपनी वृद्धावस्था देख कर चिंता करने लगा और सभा में बैठ कर प्रजा के बीच यह वचन बोला।

हे लोगो ! इस जन्म में तो मैंने कोई पाप नहीं किया है तथा न मैंने अन्याय से उपार्जित धन को खजाने में डाला है; और न मेंने कभी ब्राह्मण और देवता का धन लिया है, न मेंने बहुत से पाप की देने वाली किसी की धरोहर मारी है। मैंने तो धर्म से पृथ्वी जीती है और प्रजा का पुत्र के समान पालन पोषण किया है। और भाई और पुत्र के समान भी जो दुष्ट हैं उनको दंड दिया है; उत्तम और बड़े लोगों को द्वेष करते हुए भी मैंने उनका सत्कार किया है।

हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो ! इस प्रकार धर्म मार्ग में चलते हुये भी मेरे घर में पुत्र नहीं हुआ इसका विचार कीजिये ।

ब्राह्मण इस बातको सुनकर पुरोहित और प्रजा सहित राजा के हित की सलाह करके गहरे वन को चले गये ओर इधर उधर ऋषियों के आश्रम खोजने लगे। फिर राजा के हित की इच्छा से जब ऋषियों के आश्रम खोजने लगे तो उन्होंने एक श्रेष्ठ मुनि को कठिन तप करते हुये देखा कि जो चिदानंद, अनामय (स्वस्थ), निराहरी, जितेन्द्रिय, क्रोधरहित, सनातन, धर्मतत्त्व के ज्ञाता, सब शास्त्र में प्रवीण, दीघायु, महात्मा ओर बह्म के समान थे और उनका नाम लोमश ऋषि था।

एक कल्प बीतने पर उनका एक रोम झड़ता है, इसलिये उनका नाम लोमश है; वे महामुनि त्रिकाल के जानने वाले थे।

उनको देखकर सब प्रसन्न हो गये और उनके पास गये और न्याय और योग्यतापूर्वक उन सबने उन ऋषि को नमस्कार किया। ओर विनय से नम्न होकर सब आपसमें कहने लगे कि हमारे ही सबके भाग्य से ये श्रेष्ठमुनि मिले हैं। उनको प्रणाम करते हुये देख श्रेष्ठ मुनि बोले – लोमश मुनि पूछने लगे – आप लोग क्या चाहते हैं ? जिस प्रयोजन से यहाँ आये हैं उसे कहिये; और आप सब मेरे दर्शन करते ही आनंद की वाणी से क्यों मेरी स्तुति करते हो ? जो कुछ आपका हित होगा उसे मैं अवश्य करूंगा। हम सरीखों का जन्म पराये उपकार के लिये ही है, इसमें कोई संदेह नहीं है।

वो लोग बोले – हे भगवन्‌ ! सुनिये हम अपने आनेका कारण कहते हैं। हम सब संदेह दूर करने के लिये आपके पास आये हैं। ब्रह्मा से और आपसे कोई श्रेष्ठ नहीं हैं। इसीलिये एक कार्य के लिये हम आपके पास ऐसे आये हैं।

हे मुनि श्रेष्ठ ! महीजित्‌ नाम का हमारा राजा है, उसको इस समय पुत्र नहीं है। हे ब्रह्मदेव हम उसकी प्रजा हैं, और उन्होंने हमें पुत्र के समान पाला है; उनके पुत्रहीन होने से हम भी उनके दुःखसे दुखी हैं। और दृढ़ निश्चय की मति करके तप करने के लिये यहां आये हैं, ओर हे द्विजोत्तम उन्हीं के भाग्य से हमने आपके दर्शन किये। महात्माओं के दर्शन से ही मनुष्यों के काम हो जाते है।

हे मुनिराज ! जिस तरह राजा के पुत्र हो जाऐ ऐसा उपाय कहिये।

उनका वचन सुनकर मुनि दो घड़ी तक ध्यान में मग्न हो गये और फिर उस राजा के पर्वजन्म की दशा जानकर बोले। लोमश ऋषि कहने लगे – पूर्वजन्म में यह राजा दरिद्री बनिया था, और बड़ा घाती था; और एक गांव से दूसरे गांव में व्यपार करता फिरता था।

ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी के दिन मध्यान्ह में जब सूर्य तप रहे थे उस समय प्यास के मारे ग्राम की सीमा में एक सुंदर जलाशय को देख कर उसने जल पीना चाहा। वहां एक हाल की व्याई बछड़े सहित गौ भी आईं। प्यास के मारे अत्यधिक गर्मी से दुःखी वह भी उसके जल को पीने लगी; इसने उस पीती हुई गौ को हठाकर आप जल पिया।

उस कर्म के फल से यह राजा पुत्रहीन हुआ और पूर्वजन्म में जो पुण्य किये थे इससे अकंटक राज्य पाया।

लोग बोले – हे मुनिराज ! “पुण्य से पाप नाश हो जाता है” ऐसा पुराण में सुना जाता है, सो आप किसी पुण्य का उपदेश कीजिये कि जिससे पाप नाश हो जाय और आपके प्रसाद से राजा को पुत्र हो। लोमश ऋषि बोले – श्रावण के शुक्ल पक्ष की पुत्रदा नामसे विख्यात एकादशी का व्रत तुम सब जनें विधि- पूर्वक और जैसा शास्त्र में कहा है वैसा जागरण सहित करो। ओर हे प्रजानन ! उस व्रत के बड़े निर्मल पुण्य को राजाको दो। ऐसा करनेसे राजा को अवश्य पुत्र होगा। वे लोमश ऋषि का वचन सुनकर और द्विजोत्तम को प्रणाम कर हर्ष नेत्रों को खिलाते हुये अपने घर को गये।

जब श्रावण का महीना आया तो लोमश ऋषि के वचन का स्मरण कर सब लोगों ने राजा समेत श्रद्धापूर्वक व्रत किया, और द्वादशी के दिन सब जनों ने अपना पुण्य राजा को दे दिया। पुण्य को देने से ही उस राजा की रानी के सुन्दर गर्भ रह गया और जब प्रसूति का समय आया तो उसने तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। सो हे नृपश्रेष्ठ ! इस कारण ही इस एकादशी का नाम पुत्रदा एकादशी विख्यात हुआ और इस लोक और परलोकमें सुख चाहनेवालों को यह व्रत करना चाहिये। जो श्रावण पुत्रदा एकादशी के माहात्म्य को सुनेगा वह सब पापों से छूट जायगा और यहाँ पुत्र का सुख पाकर दूसरे लोक में स्वर्ग की प्राप्ति होगी।

॥ इति श्रीश्रावणशुक्लैकादशी माहात्म्यं समाप्तम ॥

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