परमा एकादशी का व्रत तीन साल में एक बार आता है। यह एकादशी पुरुषोत्तम मास के कृष्ण पक्ष में आती है। वर्ष 2020 में पुरुषोत्तम मास होने के कारण यह एकादशी 13 अक्टूबर, मंगलवार को है। पुरुषोत्तम मास के शुक्ल पक्ष में आने वाली एकादशी को पद्मिनी एकादशी कहते है।पद्मिनी एकादशी 27 सितम्बर, रविवार को थी ।
॥ अथ अधिकमासकृष्णेकादशीकथा ॥
युधिष्ठिर बोलते है – हे भगवन् ! मलमास के कृष्णपक्ष की एकादशी कौनसी है ? और हे जगत के स्वामी ! उसका क्या नाम और क्या विधि है ? सो कहिये।
श्रीकृष्ण बोलते है – उसका नाम परमा हैं; वह बड़ी पवित्र और पापों का नाश करनेवाली है। और हे युधिष्ठिर ! स्त्री पुरुषों को भुक्ति मुक्ति की देनेवाली है। पृथ्वी पर मनुष्यों को कृष्णपक्ष की एकादशी भी पहले कही हुईं रीति से करनी चाहिये ओर उस दिन बडी भक्ति से नरोत्तम भगवान की पूजा करना चाहिये।
अब मैं तुमसे इस मनोहर कथा को कहूंगा, कि जो कांपिल्य नगरमें हुई थी और मेने मुनियोंसे सुनी है। एक सुमेधा नाम अच्छा धर्मीत्मा ब्राह्मण था । उसकी पवित्रा नामक स्त्री थी और वह बडी पतिव्रता थी।
किसी कर्म के प्रभाव से वह ब्राह्मण धनधान्यरहित – गरीब था। और बहुत से मनुष्यों से याचना करने पर भी उसे कहीं भीख तक न मिलने लगी। उसे भोजन वस्त्र आभूषण कुछ नहीं मिलता परन्तु रूप योवन से सुन्दर वह स्त्री अपने पतिकी अच्छी सेवा करती थी। जो वह अतिथि का पूजन कर अपने घर में भूखी भी बेठती, तो उस सुंदर स्त्री का मुखकमल कभी फीका नहीं दीखता था। न वह पति से कभी कहती, कि घर में अन्न नहीं है।
परन्तु उस सुंदरमुखी स्त्री को अपने शरीर को कसते हुये देख और चित्त में स्त्री के प्रेम बंधन को विचार कर वह ब्राह्मण अपने भाग्य की निन्दा करता हुआ प्रियंवदा से यह वचन बोला।
प्यारी ! मैं वह काम करता हूँ कि जिससे धन मिले पर नहीं मिलता है । और बड़े आदमियों से याचना करता हूँ तो वे भी मुझे धन नहीं देते है। सुन्दरि ! मैं क्या करूं ? कहां जाऊं ? सो मुझसे कह। हे सुजंघे ! बिना धन के घर का काम नहीं चलता है। मुझे परदेश जाने की आज्ञा दे, तो धन कमाने के लिये जाऊं, क्योंकि जिस देश में जो मिलना होगा वहां ही भोजन मिलेगा। और उद्यम के बिना कर्मों की सिद्धि नहीं होती । इसीलिये पण्डित शुभ उद्यम की सदा प्रशंसा किया करते हैं।
पति के वचन सुनकर वह सुलोचना आंखों में आंसू भर लाई और नम्नता से हाथ जोड़ गर्दन नीची करके बोली। तुमसे बढ़कर कोई ज्ञानी नहीं है, तुम्हारी आज्ञा हो तो मैं कुछ कहती हूँ कि हितकारी मनुष्य सदा कहते हैं कि बुरे या भले मनुष्य को पृथ्वी तल पर जहां कहां मिलता है पहले जन्म का दिया हुआ ही मिलता है, और बिना दिये सोने के सुमेरु पर्वत पर भी नहीं मिलता है।
पहले जन्म की दी हुईं विद्या और पहले दिया हुआ धन और पहले दी हुई भूमि ये सब वस्तु इस जन्म में मिलती हैं। जो विधाता ने ललाट में लेख लिखा है वह वैसे ही मिलता है। बिना दान के तो कहीं भी कुछ नहीं मिलता है।
हे विप्रेन्द्र ! पूर्वजन्म में मैंने और तुमने कभी सत्पात्रों के हाथ में थोडा या बहुत भी तो धन नहीं दिया। इस देश में क्या और दूसरे में क्या; दिया हुआ हो तो सब जगह मिलता है । और भगवान अन्न मात्र तो बिना दिये दे देता है।
इसलिये हे विप्रेन्द्र ! तुमको मेरे साथ यहाँ ही रहना चाहिये और हे महामुनि जी ! तुम्हारे बिना मैं क्षणमात्र भी नही रह सकती हूँ।
माता, पिता, भाई, सासू, ससुर और अपने स्वजन ये कोई स्त्री का सत्कार नहीं करते हैं, फिर दूसरे कहां रहे? वरना विधवा की बड़ी निंदा करते हैं। उसे दुर्भगा कहते हैं; इसलिये यहां स्थिर होकर सुखपूर्वक विहार करो। तुम्हारे भाग्य से जो कुछ मिलना होगा यहाँ ही मिलेगा। उसका वचन सुनकर वह पंडित ब्राह्मण वहाँ का वहाँ ही खड़ा रह गया।
इसी बीच में वहां श्रेष्ठ मुनि कौंडिन्य आ पहुंचे ।
उनको आया देखकर श्रेष्ठ ब्राह्मण सुमेधा बड़ा प्रसन्न हुआ। स्त्री सहित उठकर उनको शिर से बारम्बार प्रणाम किया और कहा – धन्य है, आपने बड़ी कृपा की; आज़ मेरा जीना सफल हुआ। क्योंकि मेरे बड़े भाग्यसे आपने दर्शन दिया। मुनीश्वर से यों कह कर उन्हें सुन्दर आसन दिया और उन मुनि की पूजा की। और उनको विधिपूर्वक भोजन कराके सुन्दर स्त्री उनसे पूछने लगी – हे मुनिराज ! हमारे दारिद्रय का कैसे नाश हो।
कुटुम्बियों को धन और विद्या पूर्वजन्म में बिना दिये कैसे मिलते हैं ? मेरा पति मुझे छोड़कर आज परदेस जाने को तैयार है। दूसरे नगर में दूसरे देश के लोगों से माँगने जाता है; पर हे मुनिराज ! मेने उन्हें बड़ी बड़ी न जानेकी बातों से प्रार्थना कर और यह कहकर रोका है, कि “ बिना दिया कुछ नहीं मिलता ” ।
इतने में ही हे मुनिराज ! मेरे भाग्य से आप यहां आ गये। आपके प्रसाद से मेरा दारिद्रय शीघ्र जाता रहा, इसमें संदेह नहीं है। सो हे विप्रेन्द्र ! किस उपाय से मेरा दारिद्र हमेशा के लिये नाश होगा ?
हे कृपासिंधु ! कोई व्रत, तीर्थ और तप आदि हो तो कहिये। फिर उन श्रेष्ठमुनि ने उस सुशीला स्त्री का वचन सुनकर और मन में विचारकर सब पापों के समूह और दुःख दारिद्रय का नाश करनेवाला उत्तम व्रत को कहा।
परमा नाम बड़ी उत्तम कृष्ण पक्ष की एकादशी जो मलमास में भुक्तिमुक्ति के फलकी देनेवाली है।
उसका व्रत करके मनुष्य धनधान्य युक्त होता है; सो तुम उसे विधिपूर्वक जागरण ओर गीत वाद्य सहित करो। जब कुबेर ने इस सुंदर व्रत को किया था तब रुद्र भगवान ने प्रसन्न होकर उसे धन का स्वामी कर दिया था । और पहले हरिश्वन्द्र ने भी किया था तो उसे फिर स्त्री पुत्र और निर्भय राज्य मिला।
सो हे सुलोचना ! हे कल्याणि ! तू इस सुन्दर व्रत को कही हुई विधि से जागरण सहित कर। यह कहकर मुनि ने उससे सब विधि कही और फिर उस ब्राह्मण को पंचरात्रि का सुन्दर व्रत बताया कि जिसका अनुष्ठान करने से भुक्ति मुक्ति मिलती है । परमा एकादशी के दिन सबेरे प्रातःकाल की विधि करके फिर नियम से शक्ति के अनुसार आदरपूर्वक पंचरात्रि व्रत करे।
जो प्रातःकाल स्नान करके पांच दिन तक निराहार रहे, वह पिता माता और पुत्र सहित विष्णुलोक को जाता है और जो पुरुष पांच दिन एक बार भोजन करता है वह सब पापों से छूटकर स्वर्गलोक में सुख भोगता है। जो मनुष्य स्नान करके पांच दिन ब्राह्मणों को भोजन कराता है तो उसने मानो देवता असुर और मनुष्य समेत संसार भरे को भोजन करा दिया ।
जो पुरुष सुन्दर जल से घट भर के ब्राह्मणको देता है तो मानो उसने चराचर समेत सब ब्रह्माण्ड का दान दिया। जो पुरुष पंडित ब्राह्मण को तिलपात्र का दान देता है तो हे पतिव्रते ! तिलों की गिनती के समान वर्षों तक यह स्वर्गमण्डल में वास करता है और जो मनुष्य स्नान करके पांच दिन घृतपात्र दान करता है वह संपूर्ण भोग भोग कर सूर्यलोक में आनन्द करता है।
जो मनुष्य पांच दिन ब्रह्मचर्य से रहता है वह स्वर्ग की अप्सराओं के साथ आनन्द से स्वर्ग के भोगों को भोगता है।
हे पतिव्रते ! हे कल्याणि ! तू पति के साथ इस विधि से व्रत करेगी तो हे सुव्रते ! तू धनधान्य से युक्त होकर स्वगंको जायेगी ।
जब ऋषि ने सुव्रता से यह कहा तो उसने कौंडिन्य जी के कहे अनुसार पति के साथ भक्तिपूर्वक मलमास में स्न्नान कर व्रत किया। और जब परमा एकादशी का व्रत हो चुका तो पति समेत उसने पंचरात्रि का व्रत किया। फिर उसने राजभवन से राजपुत्र को आते देखा। राजपुत्र ने उस ब्राह्मणको सब सुन्दर ववस्तुओं से भरा हुआ एक नवीन घर दान दिया और जैसे विधाता ने उसे प्रेरणा की थी वैसा ही विधिसे ब्राह्मण को बसाया।
और सुमेधा ब्राह्मण को जीवनयापन के लिये एक ग्राम देकर राजा उसके तप से प्रसन्न हो उसकी स्तुति करके अपने घर गया। मलमास के कृष्ण पक्ष की परमा एकादशी के बड़े आदर पूर्वक उपवास करने से ओर पंचरात्र के व्रत से वह ब्राह्मण सब पापोंसे मुक्त हुआ और यहाँ स्त्री समेत सब सुखों से युक्त एवं सब भोगों को भोग कर विष्णुधाम को गया।
श्रीकृष्ण बोलते है – पंचरात्र के अगाध पुण्य को मैं नहीं कह सकता हूँ । तो भी थोड़ा सा कहता हूँ; जिसने परमा का व्रत किया उसने पुष्कर आदि तीर्थ और गंगा आदि नदियों में स्नान कर लिया । और उसने गौदान आदि सब दान कर लिये। और उसने गयाश्राद्ध कर पितरों को संतुष्ट कर लिया । और उसने व्रतखंड में कहे हुये सब व्रत कर लिये।
द्विपदो में ब्राह्मण ओर चौपायों में गौ, देवताओं में इन्द्र, और मासों में मलमास परमश्रेष्ठ है। मलमास में पंचरात्र व्रत महापापनाशक कहा गया है । ओर पंचरात्र में भी पापनाशिनी परमा और पद्मिनी उत्तम हैं।
पंडितों को चाहिये कि अशक्त होने पर भी उनमें से एक व्रत तो अवश्य भक्तिपूर्वक करे।
मनुष्य योनि पाकर जो मलमास में तीर्थस्नान नहीं किया और जिसने एकादशी का उपवास नहीं किया वे आत्मघाती हैं। और वे मनुष्य चौरासी लाख योनियों में घूमते हैं। और फिर बड़े पुण्यों से मनुष्य के दुर्लभ जन्म को पाते हैं। इसलिये बड़े यत्न से परमा के शुभ व्रत को करना चाहिये।
श्रीकृष्ण बोलते है – हे निष्पाप युधिष्ठिर ! जो तुमने पूछा था वह सब मैंने कह दिया। तात्पर्य यह है, कि जो मनुष्य पृथ्वी पर मलमास में भक्ति पूर्वक विधि से परमा का व्रत करते हैं, वे स्वर्ग में इन्द्र के समान ऐश्वर्य – भोग भुगतने के बाद त्रिलोक्य में वंदित जो विष्णु भगवान् हैं उनकेधाम को जाते हैं। सो है महाराज तुम भी इस परमा एकादशी के शुभ व्रत को करो।
इसकी कथा पढ़ने और सुनने से एक हजार गौदान का फल पाता है।