परिवर्तिनी एकादशी का व्रत वर्ष 2020 में 29 अगस्त, शनिवार को है। यह भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में आती है। इसे वामन एकादशी, जलझूलनी एकादशी और डोल ग्यारस भी कहा जाता है।
भगवान श्री हरी विष्णु देवशयनी से चार महिने तक सोये रहते है। ये चार महीने चातुर्मास कहलाते है। तथा वे देवउठनी एकादशी को जागते है। इन चार महीनों में एक दिन ऐसा भी आता जब विष्णु भगवान क्षीर सागर में शयन करते हुए करवट लेते है। भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी ही वो दिन है, इसीलिए इसे परिवर्तिनी एकादशी कहते है। इस दिन विष्णु भगवान के वामन अवतार की आराधना करी जाती है।
॥ अथ भाद्रपदशुकलैकादशीकथा ॥
युधिष्ठिर कृष्ण भगवान् से कहते है – हे भगवन ! भाद्रपद शुक्ल पक्ष की एकादशी का क्या नाम है ? उसके देवता कौन है ? उसका क्या विधि-विधान है ? और उसके पुण्य का क्या फल हैं ? सो कृपा करके कहिये।
श्रीकृष्ण बोलते है – हे राजा ! यह बड़ी पवित्र है तथा स्वर्ग – मोक्ष की देनेवाली है; ओर इसका नाम वामन एकादशी है। तथा यह समस्त पापों को हरने वाली है।
हे राजा ! इसी एकादशी को भी जयंती कहते हैं; कि जिसके सुनने मात्रसे सब पाप नाश होजाते हैं। जयंती का उत्तम व्रत पापियों के पाप का नाशक है। हे राजा ! इससे बढ़कर ओर कोई मोक्ष के देनेवाली नहीं है।
हे युधिष्ठिर ! इसलिये मोक्षकी इच्छा करनेवालों को इस व्रत को करना चाहिये, फिर वैष्णव, मेरे भक्त, ओर मुझे मुख्य समझने वालों का क्या कहना है ? अथात् वे तो अवश्य ही करें।
जिन्होंने भादो (भाद्रपद मास) में वामन को पूज लिया उन्होंने तीनों लोकों का पूजन कर लिया, इसमें कोई संदेह नहीं है। और वे भगवान के पास जाते हैं। जिसने भादो सुदी में जयंती एकादशी के दिन कमलनेत्र वामनजी का कमलोंसे पूजन किया, उससे सब जगत का और सदा के लिये त्रिदेवो अर्थात ब्रह्मा, विष्णु और महेश का पूजन किया। हे राजा ! इस कारण इस एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिये। इसके करने से फिर तीनों लोक में फिर कुछ करना बाकी नहीं रहता ।
इस दिन भगवान् सोते हुए करवट लेते हैं, इसीलिये सब इसे परिवर्तिनी एकादशी कहते हैं ।
युधिष्टिर बोलते है – हे जनार्दन ! एक मुझे बड़ा भारी संदेह है, सो सुनिये। हे भगवन् ! आप कैसे सोते हैं ? और कैसे करवट लेते हैं? और हे देवेश ! आपने बलि नामक असुर को क्यों बांधा था ? हे स्वामी ! यह प्रसंग विस्तारपूर्वक कहकर मेरा संदेह दूर करो।
श्रीकृष्णजी बोलते है – हे राजसिंह ! पाप को हरने वाली इस कथा को सुनो ।
हे राजा ! पहले त्रेतायुगमें बलि नाम का एक दानव था। वह मेरी नित्य पूजा किया करता था, वह मेरा भक्त मेरा ही नाम रटा करता था। जप और अनेक प्रकार के सुक्तों से वह मेरी नित्य पूजा करता था। और नित्य ब्राह्मणों का पूजन और यज्ञ करवा कर उसने इन्द्र से बैरभाव से देवलोक जीत लिया था। जब उस महात्मा ने मेरे दिये इस लोक को जीत लिया तो यह देख फिर सब देवता एकत्र होकर यह सलाह करने लगे, कि सब मिलकर प्रभु भगवान के पास बतलाने के लिये चलें। फिर इन्द्र, अन्य देवता ओर भी ऋषियों को साथ लेकर विष्णु भगवान के पास गये।
और इन्द्र सिर पृथ्वी से लगाकर सूक्तों से मेरी स्तुति करने लगे और देवताओं सहित बृहस्पतिजी ने भी मेरा तरह तरह से पूजन किया। फिर मेंने वामन रूप से पाँचवा अवतार लिया और बाल रूप से मैंने उस सत्यप्रतिज्ञ को जीत लिया। और फिर सब ब्रह्माण्ड में व्याप्त ऐसे अपने विश्वव्यापी रूप से उसका सर्वस्व जीत लिया और उस बिल को इन्द्र को सौंप दिया। युधिष्ठिर बोले – हे देवेश ! आपने वामन रूप से उस असुरको कैसे जीत लिया सो मुझ भक्त से विस्तारपूर्वक कहिये।
श्रीकृष्ण बोले – मैंने ब्रह्मचारी का स्वरूप धारण कर बलि से याचना करी, कि तुम मुझे केवल तीन पग भूमि दान करो, यह मुझे तीनों लोकों के समान है।
हे राजा ! जो देना है तो विचार क्यों करते हो? जब मैंने यह कहा तब राजा बलि ने मुझे तीन पग भूमि दान करी। उसके संकल्प करते ही मेरी जगद्-व्यापी देह बहुत बढ़ी। मेंने भूलोक (पृथ्वी लोक) में तो पांव किये और भुवर्लोक में जंघा की। तथा स्वर्गलोक में कटि को ठहराकर, महर्लोक में पेट को रखा। जनलोक में हृदय, और तपोलोक में कंठ को रखा। और सत्यलोक में मुख रखकर उसके ऊपर शिर कर लिया। उस समय चन्द्र सूर्य आदि ग्रह तथा नक्षत्रसमूह, योग, इन्द्र समेत सब देवता और शेष आदि नाग ये सब अनेक तरह के मंत्रों से मेरी स्तुति करने लगे।
फिर मैंने बलि का हाथ पकड़कर यों कहा, कि एक पैर से मेंने पृथ्वी को नाप लिया, दूसरे से स्वर्ग को नाप लिया। हे निष्पाप ! अब तीसरे पैर का स्थान तो दे दो।
जब मेंने ऐसे कहा, तब बलि ने अपना मस्तक आगे कर दिया। और कहने लगा कि हे जनार्दन आप अपना तीसरा पग मेरे सिर पर रख दे।
फिर मैंने अपने पूजने वाले दानव के मस्तक पर तीसरा पैर रख दिया। मेरे ऐसा करने से वह पाताल लोक में समाने लगे। तब बलि अति विनम्र होकर मुझे सदा उसके साथ रहने का आग्रह करने लगा। फिर जब उसे विनय से नम्न देखा, तो मैं जनार्दन उस पर प्रसन्न हुआ, और मेंने कहा कि हे राजा बलि ! हे मानद ! मैं तेरे पास सदा रहता हूँ। और जब से विरोचन के पुत्र महात्मा बलि से मैंने यह कहा, उस आषाढ़ शुक्ल पक्ष की शयनी एकादशी के दिन से मेरी एक मूर्ति बलि के यहां रहती है; दूसरी उत्तम समुद्र क्षीरसागर में शेषनाग की पीठ पर रहती है।
हे राजा ! जब तक कार्तिक की एकादशी आवे तब तक मेरी देह सोती रहती है। और भादों के शुक्ल पक्ष में परिवर्तिनी एकादशी के दिन मेरी देह करवट लेती है। हे राजा युधिष्ठिर ! इस कारण से इस एकादशी कों यत्नपूर्वक करना चाहिये। यह बड़ी पवित्र और पापनाशिनी है; इसके व्रत करनेसे बड़ा पुण्य होता है।
इस दिन त्रिलोकी के पितामह भगवान का पूजन करे। चांदी और चावल सहित दधि का दान करे। जो मनुष्य उस रात्रिको जागरण करता है, वह मुक्त हो जाता है। और हे राजा ! जो इस एकादशीके उत्तम व्रत को करता है, कि जो सब पापों का नाशक भुक्ति मुक्तिका देनेवाला है, तो वह देवलोक में जाकर चंद्रमा की तरह शोभा पाता है। और जो मनुष्य बड़े पाप को नाश करने वाली इस कथा को सुनता है, उसे हजार अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है।
॥ इति भाद्रपदशुक्कायाः परिवर्तिनी नाम एकादश्या माहात्म्यं समाप्तम ॥