
भगवान श्री कृष्ण युद्धिष्ठिर से कहते है कि नरश्रेष्ठ भीष्म जी के स्वर्गवासी हो जाने पर सारे ज्ञान लुप्त हो जायेंगे। इसलिए आप गंगानन्दन भीष्म जी के पास चल कर, उनको प्रणाम करके,धर्म, अर्थ,काम और मोक्ष इन चारों पुरूषार्थो के बारें में, यज्ञादि कर्मो को तथा चारो आश्रमों और राजा से सभी धर्मो को आप उनसे पूछिए। आपके मन में जितने भी संदेह ग्रस्त विषय है, उन सबको भी आप उनसे पूछिए। युध्दिष्ठिर भगवन श्री कृष्ण को कहते है कि आपको ही आगे करके हम लोग भीष्म पितामह के पास चलने का विचार करते है। और फिर सभी पांडवों को साथ लेकर और श्री कृष्णा भगवन को आगे करके युधिष्ठिर महात्मा भीष्म के पास चलते है।
भगवान श्री कृष्ण की प्रेरणा एवं शक्ति से भीष्म पितामह ने बाण शैया पर लेटे हुए ही लगातार कई दिनों तक युधिष्ठिर को वर्णाश्रमधर्म, राजधर्म, आपदधर्म,मोक्षधर्म, श्राध्दधर्म, दानधर्म, स्त्रीधर्म आदि अनेक विषयों पर उपदेश दिया, जो महाभारत के शांतिपर्व तथा अनुशासनपर्व में संगृहीत है।
महाराज युद्धिष्ठिर महात्मा भीष्म से पूछते है कि पितामह ! किस प्रकार का आचरण करने से राजा इस लोक और परलोक में भी सुख की प्राप्ति सरलता से कर सकता है ?
इस पर महात्मा भीष्म बोलते है कि है राजन ! ऐसे 36 गुण है, यदि कोई राजा उन गुणों से संपन्न आचरण करें तो उसमें यह बात आ सकती है। महात्मा भीष्म द्वारा बताये गए गुण निम्नलिखित है :
- धर्म का आचरण करे, किन्तु कटुता न आने दे।
- आस्तिक रहते हुए दुसरो के साथ के साथ प्रेम का बर्ताव न छोड़े।
- क्रूरता का आश्रय लिए बिना ही अर्थसंग्रह करे।
- मर्यादा का अतिक्रमण न करते हुए ही विषयों को भोगे।
- दीनता न लाते हुए ही प्रिय भाषण करे।
- शूरवीर बने, परन्तु बढ़ चढ़ कर बातें न बनाये।
- दान दे, परन्तु अपात्र को नहीं।
- स्पष्ट व्यवहार करें पर कटुता न आने दे।
- दुष्टों के साथ मेल न करें।
- बंधुओं से कलह न ठाने।
- जो राजभक्त न हो, ऐसे दूत से काम ना ले।
- किसी को कष्ट पहुँचाय बिना ही अपना कार्य करे।
- दुष्टों से अपनी बात न कहें।
- अपने गुणों का वर्णन ना करे।
- साधुओं का धन न छीने।
- नीचो का आश्रय ना ले।
- अच्छी तरह जाँच किये बिना दंड नहीं दे।
- गुप्त मंत्रणा को प्रकट नहीं करें।
- लोभियो को धन नहीं दे।
- जिन्होंने कभी अपकार किया हो उन पर विश्वास नहीं करे।
- किसी से भी ईर्ष्या नहीं करे और स्त्रियों की रक्षा करें।
- शुद्ध रहे और किसी से घृणा नहीं करें।
- स्त्रियों का बहुत अधिक सेवन नहीं करें।
- स्वादिष्ट होने पर भी जो अहितकर हो उसे नहीं खाये।
- निरभिमान होकर माननीयों का आदर करें।
- गुरु की निष्कपट भाव से सेवा करें।
- दंभहीन होकर देवपूजन करें।
- अनिन्दित उपाय से लक्ष्मी प्राप्त करने की इच्छा रखे।
- स्नेहपूर्वक बड़ो की सेवा करें।
- कार्यकुशल हो,किन्तु अवसर का विचार रखे।
- केवल पिण्ड छुड़ाने के लिए किसी से चिकनी चुपड़ी बातें न करें।
- किसी पर कृपा करते समय आक्षेप नहीं करें।
- बिना जाने किसी पर प्रहार नहीं करें।
- शत्रुओं को मारकर शोक न करे।
- जिन्होंने अपना अपकार किया हो, उनके प्रति कोमलता का व्यव्हार न करें।
भीष्म पितामह कहते है कि राजन ! यदि अपना हित चाहते हो तो इसी प्रकार का बर्ताव करो। ऐसा बर्ताव न करने पर आपत्ति में पड़ जाओगे। जो राजा इन सब गुणों का पालन करता है वो इस लोक में सुख पाता है और मरने पर स्वर्ग में भी सुख पता है और सम्मानित होता है।
महात्मा भीष्म का यह उपदेश सुनकर महाराज युद्धिष्ठिर उन्हें प्रणाम करते है।
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स्रोत:
संक्षिप्त महाभारत (द्वितीय खण्ड)